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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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ज्ञानानन्दस्वरूप में ढल! यही जिनप्रवचन का और सन्तों का उपदेश है; मोक्ष का उपाय भी यही है।
हे जीव! तेरा अस्तित्व तुझमें और दूसरों का अस्तित्व उनमें है। तेरे हित के लिए तुझे दूसरों के सन्मुख देखना पड़े अथवा दूसरों के कारण तुझे रुकना पड़े - ऐसा नहीं है।
प्रश्न - दूसरों की बात तो ठीक किन्तु इस देह की सँभाल के लिए तो रुकना पड़ता है न?
उत्तर - भाई ! देह का अस्तित्व पुद्गल में और तेरा अस्तित्व तुझमें है। तू सँभाल रखे तो देह का अस्तित्व टिकता है - ऐसा नहीं है। जीव का अस्तित्व अपने ज्ञानादि गुणों में है, देह में नहीं और देह का अस्तित्व अजीव परमाणुओं में है, जीव में नहीं। किसी के कारण किसी का अस्तित्व नहीं है, तब फिर दूसरों के लिए रुकना पड़े - यह बात ही कहाँ रही?
अरे! कर्म के कारण रुकना पड़ता है - ऐसा भी नहीं है... कर्म का अस्तित्व पुद्गल में है और जीव का अस्तित्व जीव में है; राग का अस्तित्व भी जीव में है। जीव और कर्म दोनों का अस्तित्व ही भिन्न है, किसी के कारण किसी का अस्तित्व नहीं है। ___ इस प्रकार पञ्चास्तिकाय को भिन्न-भिन्न जानकर, शुद्ध चैतन्यस्वरूप निज आत्मा को पृथक् करना। इसकी मुख्यता अर्थात् प्रधानता करके, उसकी महिमा का चिन्तवन करके, उस ओर झुकना। इस जगत् के अनन्त द्रव्यों में शुद्धज्ञानरूप निज आत्मा ही मैं हूँ; इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मेरा नहीं है - ऐसा निश्चय करके, वैसा ही अनुभव करना। जगत् के सभी सत् पदार्थों की सत्ता स्वीकार करके, स्वकीय चैतन्य सत्ता की शरण लेने की यह
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