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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
काल की यह भ्रान्ति कैसे मिटे? – उसका उपाय भी बताएँगे।
'जहाँ मति की गति नहीं है, वहाँ वचन की गति कैसे हो सकती है?' यहाँ मति अर्थात् पर सन्मुख ढला हुआ ज्ञान। पर तरफ के विकल्प द्वारा भी जो आत्मा को नहीं बतलाता, उस आत्मा को वाणी से तो कैसे कहा जा सकता है ? मति अर्थात् पर तरफ के ज्ञान का उघाड़ अथवा पर तरफ के झुकाववाला ज्ञान - ऐसा अर्थ यहाँ समझना चाहिए। सम्यक्मतिज्ञान द्वारा तो आत्मा ज्ञात होता है परन्तु परसन्मुखता के झुकाववाले ज्ञान के विकास से आत्मा ज्ञात नहीं होता है। इस प्रकार पहले तो उपादानस्वभाव की बात की और अब, अनन्त काल से चली आ रही उस भ्रान्ति को मिटाने के लिए अन्तर-स्वभावसन्मुख झुकने के लिए क्या करना चाहिए? - यह बात कहते हैं। ___'निरन्तर उदासीनता के क्रम का सेवन करना।' देखो, यहाँ 'निरन्तर' कहा है। जैसे, बादाम में से तेल निकालना हो तो उसे निरन्तर घिसना चाहिए। थोड़ी से घिसकर फिर दूसरे काम में लग जाए और फिर घिसने लगे; इस प्रकार क्रम-क्रम से घिसे तो तेल नहीं निकलेगा। इसी प्रकार यहाँ निरन्तर उदासीनता के क्रम का सेवन करने के लिए कहा है। पर के प्रति कुछ रुचि घटे, तब तो अन्तर के विचार की ओर ढलेगा न! पर के प्रति वैराग्यदशा लाकर अन्तर की विचारधारा में निरन्तर रुकना चाहिए।
यहाँ निरन्तर पर के प्रति उदासीनता का सेवन करने के लिए कहा तो क्या खाना-पीना इत्यादि कुछ नहीं करना? यदि ऐसा कोई पूछे तो उससे कहते हैं कि भाई ! जिस प्रकार व्यापार का लोलुपी
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