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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
निमित्त स्वयं से बाह्य ही है, तथापि निमित्तरूप से उनमें बाह्य और अन्तरङ्ग ऐसे दो भेद हैं । ज्ञानी का आत्मा अन्तरङ्ग निमित्त है और ज्ञानी की वाणी, वह बाह्य निमित्त है। एक बार साक्षात् चैतन्यमूर्ति ज्ञानी मिले बिना शास्त्र के कथन का आशय क्या है ? - यह समझ में नहीं आता। शास्त्र स्वयं कहीं अपने आशय को नहीं समझाता, इसलिए वह बाह्य निमित्त है। शास्त्र का आशय तो ज्ञानी के ज्ञान में है। जो सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें अन्तरङ्ग में दर्शनमोह का क्षय इत्यादि है, इसलिए वे ही अन्तरङ्ग निमित्त है।
जिस पात्र जीव में स्वभाव का अवलम्बन लेने की योग्यता हुई है... शुद्ध कारणपरमात्मा का अवलम्बन लेकर सम्यक्त्व प्रगट करने की तैयारी हुई है... वैसे जीव के सामने अन्तरङ्ग निमित्तरूप भी, जिसे दर्शनमोह के क्षयादिक हुए हों, वैसे जिनसूत्र के ज्ञायक पुरुष ही होते हैं और बाह्य निमित्तरूप में जिनसूत्र होता है। इसमें देशनालब्धि का यह नियम आ जाता है कि प्रथम ज्ञानी पुरुष की देशना ही निमित्तरूप से होती है; अकेला शास्त्र या चाहे जिस पुरुष की वाणी देशनालब्धि में निमित्त नहीं होती; देशनालब्धि के लिए एक बार तो चैतन्यमूर्ति ज्ञानी साक्षात् मिलना चाहिए। __यह नियमसार शास्त्र बहुत अलौकिक है और इसकी टीका में भी बहुत अद्भुत भाव स्पष्ट किये गये हैं। इन शुद्धभाव अधिकार की अन्तिम पाँच गाथाओं में रत्नत्रय का स्वरूप बताया है। अपना स्वभाव अनन्त चैतन्यशक्ति सम्पन्न भगवान कारणपरमात्मा है। उसके आश्रय से जो सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव प्रगट होते हैं, वह मुक्ति का कारण है।
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