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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
शम बोध वृत्त तपसां, पाषाणस्यैव गौरवं पुंषः । पूज्यं महामणेरिव, तदेव सम्यक्त्व संयुक्तम् ॥ 15 ॥ आत्मा को मन्दकषायरूप उपशमभाव, शास्त्राभ्यासरूप ज्ञान, पाप के त्यागरूप चारित्र और अनशनादिरूप तप इनका जो महत्पना है, वह सम्यक्त्व के बिना मात्र पाषाण के बोझ के समान है आत्मार्थ फलदायी नहीं है, परन्तु यदि वही सामग्री, सम्यक्त्वसहित हो तो महामणि समान पूजनीक हो जाती है, अर्थात् वास्तविक फलदायी और उत्कृष्ट महिमा-योग्य होती है।
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पाषाण और मणि – ये दोनों एक पत्थर की ही जाति के हैं, अर्थात् जाति-अपेक्षा से तो ये दोनों एक हैं, तथापि शोभा, झलक आदि के विशेषपने के कारण मणि का थोड़ा-सा भार वहन करे तो भी भारी महत्त्व को प्राप्त होता है, किन्तु पाषाण का अधिक भार उसके उठानेवाले को मात्र कष्टरूप ही होता है; उसी प्रकार मिथ्यात्व - क्रिया और सम्यक्त्व क्रिया दोनों क्रिया की अपेक्षा से तो एक
ही हैं, तथापि अभिप्राय के सत्-असत्पने के तथा वस्तु के भान -बेभानपने के कारण को लेकर मिथ्यात्वसहित क्रिया का अधिक भार वहन करे तो भी वास्तविक महिमायुक्त और आत्मलाभपने को प्राप्त नहीं होता, परन्तु सम्यक्त्वसहित अल्प भी क्रिया यथार्थ आत्मलाभदाता और अति महिमा योग्य होती है ।
( - श्री आत्मानुशासन पृष्ठ 11 )
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