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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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ग्रैवेयक तक गया, तथापि वहाँ से निकलकर निगोदादि मे गया, क्योंकि मिथ्यात्वी का शुभभाव भी पाप का मूल है। शुभभाव, मोहरूपी राजा की कड़ी है। जो उस शुभराग की रुचि करता है, वही मोहरूपी राजा के जाल में फँसकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है। जीव मुख्यतया अशुभ में तो धर्म मानता ही नहीं परन्तु शुभ में धर्म मानकर वह जीव अज्ञानी होता है । जो स्वयं अधर्मरूप है, ऐसा रागभाव, धर्म के लिये कैसे सहायक हो सकता है ?
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धर्म का कारण धर्मरूप भाव होता है या अधर्मरूप भाव होता है ? अधर्मरूप भाव का नाश होना ही धर्म का कारण है, अर्थात् सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र द्वारा अशुभ तथा शुभभाव का नाश होना ही धर्मभाव का कारण है ।
शुभभाव धर्म की सीढ़ी नहीं है, किन्तु सम्यक् समझ ही धर्म की सीढ़ी है, केवलज्ञानदशा सम्पूर्ण धर्म है और सम्यक् समझ अंशतः धर्म ( श्रद्धानरूपी धर्म) है। वह श्रद्धारूपी धर्म ही धर्म की पहली सीढ़ी है। इस प्रकार धर्म की सीढ़ी धर्मरूप ही है, किन्तु अधर्मरूप शुभभाव कदापि धर्म की सीढ़ी नहीं है।
श्रद्धाधर्म के बाद ही चारित्र धर्म हो सकता है, इसलिए श्रद्धारूपी धर्म, उस धर्म की सीढ़ी है। भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने कहा है कि 'दंसण मूलो धम्मो' अर्थात् धर्म का मूल दर्शन है। बन्ध - मोक्ष का कारण
परद्रव्यों का चिन्तन, वह बन्धन का कारण है और केवल विशुद्ध स्वद्रव्य का चिन्तन ही मोक्ष का कारण है।
( - तत्त्वज्ञानतरंगिणी - 15-16 )
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