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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
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नहीं । इस प्रकार क्रमबद्ध प्रत्येक पर्याय में ज्ञान का झुकाव स्वभाव की ओर होता जाता है और विकार से छूटता जाता है । 'विकार भले हो' - यह भावना मिथ्यादृष्टि की ही है । ज्ञानी तो जानता है कि कोई विकार मेरा नहीं है; इसलिए वह ज्ञान की ही भावना करता है और इसीलिए विकार की ओर से उसका पुरुषार्थ हट गया है। ज्ञान के अस्ति में विकार का नास्ति है ।
पहले रागादिक पहचाने नहीं जाते थे और अब ज्ञान, सूक्ष्म रागादि को भी जान लेता है; क्योंकि ज्ञान की सामर्थ्य विकसित हो गई है। ज्ञान सूक्ष्म विकल्प को भी बन्धभाव के रूप में जान लेता है। राग की सामर्थ्य नहीं; किन्तु ज्ञान की ही सामर्थ्य है। ऐसे स्वाश्रय ज्ञान की पहिचान, रुचि, श्रद्धा और स्थिरता के अतिरिक्त अन्य सब उपाय आत्महित के लिये व्यर्थ हैं। अहो ! अपने परिपूर्ण स्वाधीन स्वतत्त्व की शक्ति की प्रतीति के बिना जीव अपनी स्वाधीन दशा कहाँ से लायेगा ? निज की प्रतीतिवाला निज की ओर झुकेगा और मुक्ति प्राप्त करेगा; जिसे निज की प्रतीति नहीं है, वह विकार की ओर झुकेगा और संसार में परिभ्रमण करेगा।
ज्ञान चेतनेवाला है अर्थात् वह सदा चेतता-जागृत रहता है । जो वृत्ति आती है, उसे ज्ञान के द्वारा पकड़कर तत्काल तोड़ डालता है और प्रत्येक पर्याय में ज्ञान की सामर्थ्य बढ़ती ही जाती है। जो एक भी वृत्ति को कदापि मोक्षमार्ग के रूप में स्वीकार नहीं करता - ऐसा भेदज्ञान, वृत्तियों को तोड़ता हुआ, स्वरूप की एकाग्रता को बढ़ाता हुआ, मोक्षमार्ग को पूर्ण करके मोक्षरूप परिणमित हो जाता है। ऐसे परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव की सामर्थ्य का बल जिसे प्रतीति में जम गया, उसे अल्पकाल में मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है ।
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