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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
'प्रगट हो कि मिथ्यात्व ही आस्रव-बन्ध है और मिथ्यात्व का अभाव अर्थात् सम्यक्त्व ही संवर, निर्जरा तथा मोक्ष है । ' ( - - समयसार - नाटक पृ. 310 )
सुख का मूल सम्यक्त्व
जगत के जीव अनन्त प्रकार के दुःख भोग रहे हैं, दु:खों से सदैव के लिये मुक्त होने अर्थात् अविनाशी सुख प्राप्त करने के लिये वे अहिर्निशि उपाय कर रहे हैं; परन्तु उनके वे उपाय मिथ्या होने से जीवों का दुःख दूर नहीं होता, एक या दूसरे प्रकार से दुःख बना ही रहता है। यदि मूलभूत भूल न हो तो दुःख नहीं हो सकता और वह भूल दूर होने से सुख हुए बिना नहीं रह सकता- ऐसा अबाधित सिद्धान्त है, इसलिए दुःख दूर करने के लिये सर्वप्रथम भूल को दूर करना चाहिए, इस मूलभूत को दूर करने के लिए वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझना चाहिए ।
यदि जीव को वस्तु के सच्चे स्वरूप सम्बन्धी मिथ्या मान्यता न हो तो ज्ञान में भूल नहीं हो सकती । जहाँ मान्यता सच्ची हो, वहाँ ज्ञान भी सच्चा होता है । सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञानपूर्वक होनेवाले सच्चे बर्तन द्वारा ही जीव, दुःखों से मुक्त हो सकते हैं।
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'स्वयं कौन है ? ' इस सम्बन्धी जगत के जीवों के महान भूल अनादि से चली आ रही है । अनेक जीव, शरीर को अपना स्वरूप मानते हैं; अथवा शरीर तो अपने अधिकार की वस्तु है ऐसा मानते हैं, इसलिए शरीर की सम्भाल रखने के लिये वे अनेक प्रकार से सतत् प्रयत्न करते रहते हैं।
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