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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[319 मेरी पर्याय, परद्रव्य से नहीं होती; किन्तु स्वतन्त्र मुझसे ही होती है – इस प्रकार पर्याय की स्वतन्त्रता को माने, तब मिथ्यात्व का रस मन्द होता है और सच्चा शास्त्रज्ञान भी होता है, उसे व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान कहते हैं, वहाँ कषाय की मन्दता होती है; किन्तु अभी पर्यायदृष्टि है, इसलिए सम्यग्दर्शन नहीं होता। ___ जो त्रैकालिक चैतन्यस्वभाव है, वह अंशमात्र (पर्याय जितना) नहीं है; चैतन्य तो स्वभाव से परिपूर्ण और विभाव से रहित है - ऐसी श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है, वही अपूर्व पुरुषार्थ एवं मोक्षमार्ग है। मन्दकषाय का पुरुषार्थ अपूर्व नहीं है, वह तो जीव ने अनन्त बार किया है; इसलिए उसे सीखना नहीं पड़ता, क्योंकि वह कोई नवीन नहीं है, किन्तु जीव ने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उपाय कभी भी नहीं किया; इसलिए यही अपूर्व है और वही कल्याण का कारण है।
जीवों ने श्रद्धा और ज्ञान का व्यवहार तो अनन्त बार सुधारा है, तथापि निश्चयश्रद्धा-ज्ञान के अभाव के कारण उनका हित नहीं हुआ। अधिकांश लोग, धर्म के नाम पर बाह्य-क्रियाकाण्ड में ही अटक गये हैं, उनके तो व्यवहार श्रद्धा-ज्ञान भी यथार्थ नहीं होता; इसलिए यहाँ यथार्थ समझाया है कि व्रत, प्रतिमा अथवा दया, दानादि के शुभपरिणामों से व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान नहीं होते, वे उसके उपाय नहीं हैं । व्यवहार श्रद्धा-ज्ञान कैसे होते हैं तथा सम्यग्दर्शन -सम्यग्ज्ञान कैसे प्रगट होते हैं ? वह यहाँ पर समझाया है।
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