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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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बिना सुदेवादि की श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व हैं, तथापि कुदेवादि की श्रद्धा में तीव्र मिथ्यात्व है और सुदेवादि की श्रद्धा में मन्द; इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। दो जीव, शुभभाव करते हैं, उनमें से एक अपनी पर्याय को स्वतन्त्र नहीं मानता तथा दूसरा, शास्त्रादि के ज्ञान से पर्याय की स्वतन्त्रता मानता है, उनमें पहले जीव को व्यवहारज्ञान भी यथार्थ नहीं है, दूसरे जीव को व्यवहारज्ञान है । इस अपेक्षा से दोनों के पुरुषार्थ में अन्तर समझना चाहिए; परमार्थ से दोनों समान हैं
पहले पर्याय को स्वतन्त्र समझे बिना कौन त्रिकाली स्वभाव की ओर उन्मुख होगा ? व्यवहार श्रद्धा, मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु पर्याय की स्वतन्त्रता का ज्ञान, अपने शुद्ध चैतन्यस्वभाव की ओर उन्मुख होने के लिये प्रयोजनभूत है । जो वर्तमान पर्याय की स्वतन्त्रता को नहीं मानता, वह सर्व विभावों से रहित चैतन्य को कैसे मानेगा ? जो राग की स्वतन्त्रता नहीं मानता, वह रागरहित स्वभाव को भी नहीं मानेगा।
यहाँ पर यह बताया है कि मात्र कषाय की मन्दता में अनेक जीव लग जाते हैं, किन्तु उन्हें व्यवहार श्रद्धा तक नहीं होती, उनके मिथ्यात्वरस की यथार्थ मन्दता नहीं होती । जो जीव, पर्याय की स्वतन्त्रता मानते हैं, उनके कषाय की मन्दता तो सहज ही होती है; किन्तु वह मोक्षमार्ग नहीं है। जब अपने स्वभाव को स्व से परिपूर्ण और सर्वविभावों से रहित माने तथा पर्याय के लक्ष्य को गौण करके ध्रुव चैतन्यस्वभाव का आश्रय ले, उस समय स्वभाव की श्रद्धा से ही सम्यग्दर्शन होता है ।
आजकल के कुछ त्यागी - व्रतधारियों की व्यवहार श्रद्धा भी
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