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[सम्यग्दर्शन : भाग-1
स्वरूप की एकाग्रता को क्रमशः साधता है, वह श्रावक है। जो विशेष राग को दूर करके, सर्वसङ्ग का परित्याग करके स्वरूप की रमणता में बारम्बार लीन होता है, वह मुनि-साधु है और जो सम्पूर्ण स्वरूप की स्थिरता करके, सम्पूर्ण राग को दूर करके शुद्धदशा को प्रगट करते हैं, वे सर्वज्ञदेव-केवली भगवान हैं। उनमें से जो शरीरसहित दशा में विद्यमान हैं, वे अरहन्तदेव हैं, जो शरीररहित हैं, वे सिद्ध भगवान हैं।
अरहन्त भगवान ने दिव्यध्वनि में जो वस्तुस्वरूप दिखाया है, उसे 'श्रुत' (शास्त्र) कहते हैं। इनमें से अरहन्त और सिद्ध, देव हैं; सत्श्रुत, शास्त्र हैं और साधक-सन्त-मुनि, गुरु हैं। जो इन सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को यथार्थतया पहचानता है, उसकी गृहीतमिथ्यात्वरूपी महाभूल दूर हो जाती है। यदि देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप को जानकर अपने आत्मस्वरूप का निर्णय करे तो अनन्त संसार का कारणमहापापरूप अगृहीतमिथ्यात्व दूर हो जाये और सम्यग्दर्शनरूपी अपूर्व आत्मधर्म प्रगट हो।
सच्चे देव के स्वरूप में मोक्षतत्त्व का समावेश होता है, सन्त-मुनि के स्वरूप में संवर और निर्जरा तत्त्व का समावेश होता है। जैसा सच्चे देव का स्वरूप है, वैसा ही शुद्ध जीवतत्त्व का स्वरूप है। कुगुरु, कुदेव, कुधर्म में अजीव, आस्त्रव तथा बन्धतत्त्व का समावेश होता है। अरहन्त और सिद्ध में मोक्षतत्त्व का समावेश होता है। अरहन्त-सिद्ध के समान शुद्धस्वरूप जीव का स्वभाव है और स्वभाव ही धर्म है। इस प्रकार सच्चे देव, गुरु, धर्म के स्वरूप को भलीभाँति जान लेने पर उसमें सात तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान भी आ जाता है।
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