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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
आत्मस्वरूप
के लिए उनके मूलभूत बीज को अर्थात् मिथ्यात्व को, की पहिचानरूप सम्यक्त्व के द्वारा नाश करना, यही जीव (आत्मा) का परम कर्त्तव्य है । अनादि संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि सर्व शुभकृत्य अपनी मान्यता के अनुसार अनन्त बार किए हैं और पुण्य करके अनन्त बार स्वर्ग का देव हुआ है, तो भी संसारपरिभ्रमण टला नहीं, इसका कारण मात्र यही है कि जीव ने अपने आत्मस्वरूप को जाना नहीं, सच्ची दृष्टि प्राप्त की नहीं और सच्ची दृष्टि किए बिना भव का अन्त नहीं आ सकता। इसलिए आत्मकल्याणर्थ द्रव्यदृष्टि प्राप्त कर, सम्यग्दर्शन प्रगट करना, , यही सब जीवों का कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य को स्वलक्ष्यी पुरुषार्थ द्वारा प्रत्येक जीव कर सकता है। इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जीव को अवश्यमेव मोक्ष होता है ।
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मोक्ष और बन्ध का कारण
साधक जीव के जब तक रत्नत्रयभाव की पूर्णता नहीं होती, तब तक उसे जो कर्मबन्ध होता है, उसमें रत्नत्रय का दोष नहीं है। रत्नत्रय तो मोक्ष का ही साधक है, वह बन्ध का कारण नहीं होता, परन्तु उस समय रत्नत्रयभाव का विरोधी जो रागांश होता है, वही बन्धका कारण है ।
जीव को जितने अंश में सम्यग्दर्शन है, उसने अंश तक बन्धन नहीं होता; किन्तु उसके साथ जितने अंश में राग है, उतने ही अंश तक उस रागांश से बन्धन होता है ।
( - पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा 212, 214 )
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