________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[243 वह स्वभाव नहीं है और इसलिए उस स्वभाव का अनुभव ( निर्णय) करने के लिए किसी शास्त्राधार या विकल्प के आश्रय की आवश्यकता नहीं है, किन्तु स्वभाव के ही आश्रय की आवश्यकता है। स्वभाव का अनुभव करते हुए 'मैं शुद्ध हूँ' - इत्यादि विकल्प आ जाता है, परन्तु जब तक उस विकल्प में लगा रहता है, तब तक अनुभव नहीं होता। यदि उस विकल्प को तोड़कर नयातिक्रान्त होकर स्वभाव का आश्रय करे तो सम्यक्निर्णय और अनुभव हो, वही धर्म है।
जैसे तिजोरी में रखे हुए एक लाख रुपये बहीखाते के हिसाब की अपेक्षा से या गिनती के विचार के कारण स्थित नहीं हैं, किन्तु जितने रुपये हैं, वे स्वयं ही हैं; इसी प्रकार आत्मस्वभाव का अनुभव, शास्त्र के आधार से अथवा उसके विकल्प से नहीं होता; अनुभव तो स्वभावाश्रित है। वास्तव में स्वभाव और स्वभाव की अनुभूति अभिन्न होने से एक ही है, भिन्न नहीं है। दूसरी ओर यदि किसी के पास रुपया-पैसा (पूँजी) तो न हो, किन्तु वह मात्र बहीखाता लिखा करे और विचार करता रहे –यों ही गिनता रहे तो उससे कहीं उसके पास पूँजी नहीं हो जाती, इसी प्रकार आत्मस्वभाव के आश्रय के बिना मात्र शास्त्रों के पठन-पाठन से अथवा आत्मा सम्बन्धी विकल्प करने से सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हो जाता।
'शास्त्रों में आत्मा का स्वभाव सिद्ध के समान शुद्ध कहा है'; इस प्रकार जो शास्त्रों से माने, उसके यथार्थ निर्णय नहीं होता। शास्त्रों में कहा है, इसलिए आत्मा शुद्ध है - ऐसी बात नहीं है। आत्मा का स्वभाव शुद्ध है, उसे शास्त्रों की अपेक्षा नहीं है; इसलिए स्वभाव के ही आश्रय से स्वभाव का अनुभव करना, वह सम्यग्दर्शन है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.