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________________ www.vitragvani.com 220] [ सम्यग्दर्शन : भाग-1 न करे तो विचार करके अन्तर में किस प्रकार उतरेगा ? अन्तर में अपूर्व रुचि से, आत्मा की गरजपूर्वक अभ्यास करना चाहिए। पैसे में सुख नहीं है, तथापि पैसा मिलने की बात कितनी रुचिपूर्वक सुनता है, किन्तु इस बात से तो आत्मा को मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे समझने के लिए अन्तर में रुचि और उत्साह होना चाहिए। जीवन में यही करने योग्य है। (28) पहले स्वभाव की ओर ढ़लने की बात कही, उस समय आत्मा को झूलते हार की उपमा दी थी और फिर अन्तरङ्ग में एकाग्र होकर अनुभव किया, तब अकम्प प्रकाशवाले मणि की उपमा दी है। इस प्रकार 'जिसका निर्मल प्रकाण मणि की भाँति अकम्परूप से वर्तता है ऐसे उस (चिन्मात्रभाव को प्राप्त हुए) जीव का मोहांधकार निराश्रयता के कारण अवश्यमेव प्रलय को प्राप्त होता है।' जिस प्रकार मणि का प्रकाश पवन से नहीं काँपता; उसी प्रकार यहाँ आत्मा की ऐसी अडिग श्रद्धा हुई कि वह आत्मा की श्रद्धा मे कभी डिगता नहीं है । जहाँ जीव, आत्मा की निश्चल प्रतीति में स्थिर हुआ, वहाँ उसे मिथ्यात्व कहाँ रहेगा ? जीव अपने स्वभाव में स्थिर हुआ, वहाँ उसे मिथ्यात्वकर्म का अवश्य क्षय हो जाता है । इसमें क्षायिक सम्यग्दर्शन जैसी बात है । पञ्चम काल के मुनि पञ्चमकाल के जीवों के लिए बात करते हैं, तथापि मोह के क्षय की ही बात की है । क्षयोपशमसम्यक्त्व भी अप्रतिहतरूप से क्षायिक ही होगा— ऐसी बात ली है और पश्चात् क्रमानुसार अकम्परूप से आगे बढ़कर वह जीव, चारित्रदशा प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध होता है । Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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