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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित रत्नकरण्डकश्रावकाचार एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी अनेकानेक विशेषताएँ हैं।
सल्लेखना या समाधिमरण का वैज्ञानिक विवेचन भी इस ग्रन्थ की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इस ग्रन्थ में सल्लेखना पर एक स्वतंत्र अधिकार ही लिखा गया है, जिसमें सल्लेखना के स्वरूप, विधि एवं महत्त्व पर विशद प्रकाश डाला गया है। इस अधिकार का हमें विशेष रूप से पहला श्लोक बड़ी ही सावधानी से समझना चाहिए। इसमें स्पष्ट लिखा है कि गणधर देवों ने सल्लेखना धारण करने का उचित समय तब कहा है जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, रोग आदि किसी भी कारण से कोई निष्प्रतिकार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए जिसका प्रतिकार, उपचार व्यवस्था न हो सके और मृत्यु अवश्यंभावी बन गई हो।
इसका अभिप्राय है कि जब तक मृत्यु अवश्यंभावी न हो, आए हुए संकट का प्रतिकार (निवारण) संभव हो, तब तक यम सल्लेखना नहीं लेनी चाहिए। शरीर भी इसका संकेत देता रहता है। यदि शरीर अभी एक चम्मच भी पानी ग्रहण कर रहा हो तो समस्त अन्न-जल का त्याग करने वाली यम सल्लेखना नहीं लेनी चाहिए। नियम सल्लेखना लेकर आत्मा-परमात्मा का ध्यान अवश्य करते रहना चाहिए। यम सल्लेखना के लिए इस प्रकार की नियम सल्लेखना का अभ्यास बहुत उपयोगी होता है।
धर्मानुरागी श्री विजय कुमार जी जैन, देहरादून, ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार का अंग्रेजी संस्करण तैयार करके जिनवाणी की महती सेवा की है। उन्हें मेरा मंगल आशीर्वाद
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मई 2016 कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली
आचार्य विद्यानन्द मुनि
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