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Svayambhūstotra
गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद् द्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिवन्द्यं जगदीश्वराणां ममापि साधोस्तव पादपद्मम् ॥
(9-5-45) सामान्यार्थ - हे जिनेन्द ! जैसे शब्द से प्रतीति होती है वैसे ही वाक्य भी गौण व प्रधान के प्रयोजन को बताता है। ‘स्यात्' शब्द से अलंकृत वाक्य के द्वारा वक्ता जिस बात को स्पष्ट कहता है उसे मुख्य करता है तथा जिसे उस समय नहीं कहता है उसके गौणपने का ज्ञान श्रोता को हो जाता है। जो आपसे विरोध रखने वाले दर्शन हैं उनके लिए यह आपका एकान्त-खण्डन व अनेकान्त-मण्डन रूप वाक्य अनिष्ट है। इसी कारण से आपका वाक्य यथार्थ वस्तु स्वभाव को झलकाने वाला है। मोक्ष के साधक आप श्री पुष्पदन्त भगवान् के चरणकमल जगत् के ऐश्वर्यधारी इन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्र आदि के द्वारा वन्दनीय हैं और मुझ समन्तभद्र से भी इसीलिए वन्दनीय हैं।
O Lord Jina! While describing a particular (primary) attribute of a substance, your statement does not ignore the existence of other (secondary) attributes in it; for this reason, your doctrine contradicts the doctrines of all those relying on absolutistic viewpoints. As such, your lotus-feet are worshipped by the lords of the devas and the men; I too offer my adoration.
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