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Lord Ajitanatha
स ब्रह्मनिष्ठः सममित्रशत्रुर्विद्याविनिर्वान्तकषायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ॥
(2-5-10)
सामान्यार्थ – जो अपने परमात्मस्वभाव में अवस्थित हैं, जिनके लिए शत्रु व मित्र समान हैं, जिन्होंने आत्मज्ञान व आत्मध्यान की विद्या के प्रकाश से अपने क्रोधादि कषायों का व सर्व दोषों का पूर्ण रूप से नाश कर दिया है, जिन्होंने अनन्तज्ञानादि - रूप लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया है और जिनकी आत्मा इन्द्रियों व कषायों के द्वारा अजेय है, ऐसे श्री अजितनाथ भगवान् मेरे लिए आर्हन्त्यलक्ष्मी की प्राप्ति में सहायक हों।
May Lord Ajitanatha, established firmly in the purity of the Self, indifferent to the friend or the foe, destroyer of all blemishes of passions through right knowledge, possessor of the divine treasures appertaining to the pure Self, and insuperable by the senses, help me realize my pure Self.
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