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Svayambhūstotra
17 श्री कुन्थुनाथ जिन
Lord Kunthunātha
कुन्थुप्रभृत्यखिलसत्त्वदयैकतानः
कुन्थुर्जिनो ज्वरजरामरणोपशान्त्यै । त्वं धर्मचक्रमिह वर्तयसि स्म भूत्यै
भूत्वा पुरा क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः ॥
(17-1-81)
सामान्यार्थ - हे कुन्थु जिन ! कुन्थु आदि समस्त प्राणियों पर दया का अनन्त विस्तार करने वाले आपने पहले गृहस्थावस्था में राज्यलक्ष्मी के लिए राजाधिराज चक्रवर्ती होकर, पश्चात् इस संसार में समस्त ज्वरादि रोग, बुढ़ापा और मरण की उपशान्ति-रूप मोक्षलक्ष्मी के लिए इस लोक में धर्म-चक्र को प्रवर्तित किया था।
O Lord Kunthunātha! You had extended your benevolence to all living beings, including the worms and insects. O Lord! Being the king of kings (cakravartī) you had first moved forward your invincible divine discus in this world, and then the discus of piety that leads one to liberation after calming down all afflictions, old-age and death.
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