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Lord Dharmanatha
सामान्यार्थ - हे धर्मनाथ जिन ! उत्तम देव- -समूह और मनुष्य-समूह से चारों ओर से वेष्टित तथा गणधरादि विद्वानों से घिरे हुए आप उसी प्रकार सुशोभित हुए थे जिस प्रकार आकाश में निर्मल, पूर्ण चन्द्रमा ताराओं से परिवेष्टित होकर सुशोभित होता है।
O Lord Dharmanatha! Surrounded by the congregation of the noblest of devas and men, and by the most learned sages, you had appeared like the clear, resplendent full moon against the backdrop of numerous stars.
प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषन्नरामरान् नापि शासनफलैषणातुरः ॥
(15-3-73)
सामान्यार्थ आप सिंहासनादि आठ प्रातिहार्यों तथा अन्य विभूतियों से श्रृंगारित होते हुए भी न केवल उनसे किन्तु अपने शरीर से भी विरक्त थे । आप मनुष्यों व देवों को रत्नत्रय - रूपी मोक्ष - मार्ग का उपदेश करते हुए भी अपने उपदेश के फल की इच्छा से जरा भी आतुर नहीं हुए थे।
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O Lord! Though accompanied by eight divine splendours* (aṣṭa prātihārya) you were unattached even to your own body. You promulgated, without any concern for the outcome, the path to liberation for the devas and the men.
*The Arhat is accompanied by eight divine splendours (asta prātihārya):
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