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Svayambhūstotra
पूज्य जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥
(12-3-58) सामान्यार्थ - हे भगवन् ! आप पूजने योग्य जिन भगवान् की पूजा करते हुए किसी भक्तजन को जो बहुत भारी पुण्यराशि प्राप्त होती है उसमें आरम्भ-जनित लेशमात्र पाप दोष देने में समर्थ नहीं है। जिस समुद्र में शीतल व आह्लादकारी जल भरा हो उसे विष की एक कणिका दूषित नहीं कर सकती है।
O Lord Jina! The slight demerit that a person who worships you earns due to the presence of attachment and passions in his disposition is not able to lessen the huge amount of virtue that he is destined to amass; a drop of poison cannot make the cool and wholesome water of the ocean toxic.
यद् वस्तु बाह्यं गुणदोषसूते-निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥
(12-4-59) सामान्यार्थ - जो बाह्य पुष्पादि पदार्थ हैं वे पुण्य-भाव तथा पाप-भाव की उत्पत्ति के निमित्त कारण हैं। जो अपने शुभ भावों में वर्त रहा है उसके अन्तरङ्ग के उपादानरूप मूल कारण के लिए वे बाह्य पदार्थ मात्र सहकारी कारण हैं। आपके मत में तो वास्तव में अन्तरङ्ग शुभ व अशुभ भाव मात्र ही पुण्य व पाप बंध कराने में समर्थ हैं।
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