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आद्य मिताक्षर
आचार्य विद्यानन्द मुनि
कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन तीनों व्यक्तित्वों का एकत्र समवाय आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद में पाया जाता है। आदिपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन ने इन्हें कवियों में तीर्थकृत लिखा है
कवीनां तीर्थकृद्देवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥1-52॥ जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे अथवा जिन्होंने कवियों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए लक्षण ग्रन्थ की रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानों के शब्द सम्बन्धी दोषों को नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्य का कौन वर्णन कर सकता है!
ज्ञानार्णवः के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र ने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठ्य का निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥1-15॥ जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ। आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद का स्मरण हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन प्रथम ने भी किया