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________________ ___ऋजुसूत्रनय के मत से प्रस्थक भी प्रस्थक है और मेय वस्तु (उससे मापी गई धान्यादि वस्तु) भी प्रस्थक है। तीनों शब्दनयों (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) के मतानुसार प्रस्थक के अधिकार को जानने वाले व्यक्ति को अथवा प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान में उपयुक्त जीव अथवा प्रस्थककर्ता का वह उपयोग जिससे प्रस्थक निष्पन्न होता है उसमें वर्तमान कर्त्ता प्रस्थक है। इस प्रकार प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा नयप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन--जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। इसकी मान्यता है कि ससार मे प्रत्येक वस्तु अनन्त 8 धर्मात्मक होती है। एक व्यक्ति एक बार मे वस्तु के सभी धर्मों (गुणों) का कथन नही कर सकता, एक बार मे उसके एक ही धर्म का कथन किया जा सकता है और बाकी धर्मों के प्रति मौन या तटस्थभाव रखा जाता है। इस शैली को जैनदर्शन मे 'नय' कहा जाता है। जैसे वृत्तिकार मलयगिरि ने कहा है"अनन्तधर्मणो वस्तुनः एकांशेन नयनं नयः।"-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक पक्ष का निरूपण करना तथा अन्य पक्षो के प्रति तटस्थ या मौन रहना नय है। यहाँ इसे ही नयप्रमाण कहा गया है। नय का विस्तृत वर्णन आगे सूत्र ६०६ में किया गया है। यहाँ पर प्रासगिक होने से सक्षेप में इसका वर्णन किया जाता है। सक्षेप मे नय के दो भेद है-द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय। वस्तु मे रहे समान गुण-धर्म का कथन करना अर्थात् अभेद को प्रधानता देने वाला द्रव्यार्थिकनय है तथा विशेषगामी विचार अथवा भेद को मुख्यता देने वाला पर्यायार्थिकनय है। द्रव्यार्थिक के तीन भेद हैं-(१) नैगम, (२) सग्रह, और (३) व्यवहार; तथा पर्यायार्थिक के चार भेद है-(४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूढ, तथा (७) एवंभूत। (१) नैगमनय का विषय सबसे विशाल है। वह लोक रूढि के अनुसार सामान्य और विशेष सबका ग्रहण करता है। इसके अविशुद्ध, विशुद्ध और विशुद्धतर तीन भेद प्रस्तुत सूत्र मे बताये है। (२) संग्रहनय केवल सामान्य को ग्रहण करता है। भिन्न-भिन्न वस्तुओं या व्यक्तियो मे रही भिन्नता को गौण करके सामान्य समानता का प्रतिपादन करना इसका विषय है। (३) व्यवहारनय का क्षेत्र उससे भी सीमित है। सग्रहनय के अनुसार ग्रहीत वस्तुओ मे व्यावहारिक प्रयोजन के लिए यह भेद करता है। ये तीनो नय एक-दूसरे से क्रमश. सकुचित है। फिर भी तीनो सामान्य का ग्रहण करते हैं अत द्रव्यार्थिक कहे जाते हैं। (४) ऋजुसूत्रनय-यह भूत-भविष्य की उपेक्षा करके वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है। इसी सरलता के कारण इसे 'ऋजु' कहा है। (५) शब्दनय-ये शब्द के अर्थ को नहीं, किन्तु भाव को प्रधानता देता है। शब्द के लिग, कारक आदि भेदों के कारण अर्थ में भेद मानता है। सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र-२ (318) Illustrated Anuyogadvar Sutra-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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