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________________ arsenaltesesiastest (३) परिहारविशुद्धिचारित्र-जिस चारित्र साधना मे 'परिहार' अर्थात् तप विशेष द्वारा कर्म निर्जरा रूप विशेष शुद्धि होती है, वह परिहार + विशुद्धिचारित्र है। __मलधारीया वृत्ति के आधार पर आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने परिहारविशुद्धिचारित्र की निम्न विधि का वर्णन किया है ____परिहारविशुद्धिचारित्र की विधि-स्वय तीर्थकर भगवान के समीप या तीर्थंकर भगवान के समीप " रहकर जिसने पहले परिहारविशुद्धिचारित्र अगीकार किया है, उस साधु के पास यह चारित्र अंगीकार किया जाता है। परिहार तप ९ साधुओ का गण अगीकार करता है। इनमे से ४ साधु तप ग्रहण करते है, जो पारिहारिक कहलाते है। इनमें से चार परस्पर वैयावृत्य (सेवा) करते है, जो आनुपारिहारिक कहलाते है। एक साधु कल्पस्थित होता है जो गुरु रूप मे रहता है, जिसके पास पारिहारिक एव आनुपारिहारिक साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान करते है। वह सभी समाचारी का पालन करता है। पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु मे जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते है तथा शिशिर ऋतु मे जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला (४ उपवास) तप करते है। इसी प्रकार वर्षाकाल मे जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला (५ उपवास) तप करते है। शेष चार आनुपारिहारिक और कल्पस्थित ये पाँचो ही साधु प्रायः प्रतिदिन आहार करते है, उपवास आदि नही करते। आहार भी आयंबिल के सिवाय और कुछ नही करते अर्थात् प्रतिदिन लगातार आयबिल ही करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह मास तक तप करते हैं। छह मास तक तप करने के बाद वे (पारिहारिक साधु) आनुपारिहारिक बन जाते है। अर्थात्-पारिहारिको की वैयावृत्य करने वाले हो जाते है और जो पहले वैयावृत्य (आनुपारिहारिक) करते थे, वे अब पारिहारिक बन जाते है और छह मास तक पूर्ववत् तप करते है। छह मास तप करने के बाद वे आनुपारिहारिक (वैयावृत्यशील) बन जाते है, अर्थात् तप करने लग जाते है। यह क्रम भी पूर्ववत् छह मास तक चलता है। इसी प्रकार ८ साधुओ के द्वारा तप कर लेने पर एक को गुरुपद पर स्थापित किया जाता है और शेष ७ वैयावृत्य करते है और गुरुपद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है। यह भी छह मास तक लगातार तप करता है। यो १८ मास मे इस तप का कल्प पूर्ण होता है। परिहार तप के पूर्ण होने पर या तो वे साधु इसी कल्प को पुनः १ प्रारम्भ करते है या जिनकल्प धारण कर लेते है, या फिर वे वापस गच्छ मे आ जाते हैं। इस प्रकार ये तीन रास्ते है, उनके लिए। यह चारित्र (कल्प) सिर्फ छेदोपस्थापनिकचारित्र वालो के ही होता है, 8 दूसरो के नही। ____ परिहारविशुद्धिचारित्र के दो भेद है-(क) निर्विश्यमानक (आसेव्यमानक) तप करने वाले साधु, तथा (ख) निर्विष्टकायिक-सेवा करने वाले तथा आलोचना कराने वाले गुरु का चारित्र। (४) सूक्ष्मसंपरायचारित्र-सपराय का अर्थ है-क्रोधादि कषाय। जिस चारित्र मे सज्वलन आदि सूक्ष्म कषायो का अश विद्यमान हो। इसके भी दो भेद है (क) संक्लिश्यमानक-उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम सक्लेशयुक्त होते हैं, अत उसका चारित्र सक्लिश्यमानक है। test test test test test testantastestest test test सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र-२ (310) Illustrated Anuyogadvar Sutra-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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