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________________ two such bodies is not continuous but it is minimum one Samaya and maximum six months, (2) When these bodies exist their number is minimum one, two or three and maximum sahasra prithakatua. The numbers two to nine are called prithakatua That means, at one time a maximum of two to nine thousand such bodies may exist बद्ध-मुक्त तैजस्शरीरों का परिमाण ४१६. केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पं.। तं.-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते Sणं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अणंता के लोगा, दबओ सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वजीवाणं अणंतभागूणा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा, दव्यओ सबजीदेहिं अणंतगुणा जीववग्गस्स अणंतभागो। ४१६. (प्र.) भगवन् ! तैजस्शरीर कितने कहे है ? (उ.) गौतम ! वे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध अनन्त हैं, जो काल की दृष्टि से अनन्त उत्सर्पिणियो-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं। द्रव्य की दृष्टि से सिद्धों से अनन्त गुणा से अधिक और सब जीवों से अनन्त a भाग कम हैं। ____ मुक्त तैजस्शरीर अनन्त है, जो कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण है, द्रव्यतः समस्त जीवो से अनन्त गुणा अधिक तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं। विवेचन-बद्ध तैजस्शरीर अनन्त इसलिए है कि साधारण शरीरी निगोदिया जीवो के भी तैजस्शरीर पृथक्-पृथक् होते है, औदारिकशरीर की तरह एक नही। उसकी अनन्तता का काल दृष्टि से परिमाण अनन्त उत्सर्पिणियो और अवसर्पिणियो के समयो के बराबर है। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण है अर्थात् अनन्त लोकाकाशो मे जितने प्रदेश हो, इतने प्रदेश प्रमाण वाले है। द्रव्य की अपेक्षा बद्ध तैजस्शरीर सिद्धो से अनन्त गुणा अधिक और सर्वजीवो की अपेक्षा से अनन्त भाग न्यून होते है। इसका कारण यह है-तैजस्शरीर समस्त संसारी जीवो के होते है और संसारी जीव सिद्धो से अनन्त गुणे है, इसलिए तैजस्शरीर भी सिद्धो से अनन्त गुणे हुए। किन्तु सर्वजीवराशि की अपेक्षा विचार करने पर समस्त जीवो से अनन्तवे भाग कम इसलिए है कि सिद्धों के तैजस्शरीर नही होता और सिद्ध * शरीर-प्रकरण (235) The Discussion on Body Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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