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________________ *69 * OPAVOYAYO ZA Co.R * PROGRARO PARROTROPAYARI.COM PAROLAROV.CO YAPO बन जाता है। मूक ज्ञान भाषक बन जाता है। स्वार्थ-स्व-हित करने वाला ज्ञान परार्थपरोपकारी बन जाता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान का वाणी से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः इन्हें मूक, स्वार्थ या स्व-संवेद्य कहा गया है। श्रुतज्ञान भाषक है। वह वाणी का विषय है। इसलिए उसे स्वार्थ और परार्थ दोनों ही माना गया है। __ श्रुतज्ञान का अर्थ है, वह ज्ञान जो सुना जाता है। सुणेइ त्ति-सुयं (नंदी) जो सुना जाता है वह श्रुत है। जं सुणइ तं सुयं भणियं (वि. भा. ९८)। दूसरों की वाणी से या परोपदेश से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह श्रुत-सुना हुआ ज्ञान है। मूलतः ऐसा सुना हुआ श्रुतज्ञान स्वार्थ या स्व-संवेद्य कोटि का है। परन्तु इसके पश्चात् यह सुना हुआ ज्ञान जब शब्द का विषय बनता है, वाणी द्वारा प्रकट होता है तब वह परार्थ या परोपकारी बन जाता है। शब्द-आश्रित श्रुतज्ञान, द्रव्य श्रुत है तथा वह ज्ञान, जो जीव का परिणाम है, भाव श्रुत है। ____ आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने श्रुतज्ञान को दीपक की उपमा दी है। दीपक उत्पत्ति में पराश्रित है, किन्तु प्रज्वलित होने पर स्वयं को प्रकाशित करता है और दूसरों को भी पाएण पराहीणं दीवो व्व परप्पबोहयं जं च। सुयनाणं तेण परप्पबोहणत्थं तदणुओगो॥ -विशेषावश्यक भाष्य ८३९ दीपक की तरह श्रुतज्ञान भी परोपदेश से प्रकट होता है। प्रकट होने पर श्रुतज्ञान स्व को भी प्रकाशित करता है और दूसरों को प्रबोध देने में समर्थ होता है। इसलिए यह स्व-पर प्रकाशक है। __ज्ञान आत्मा का परिणाम है, जीव का गुण या लक्षण है। उवओगलक्षणो जीवो(उत्तराध्ययनसूत्र) प्रत्येक जीव में चाहे वह मुक्त जीव है या संसारी जीव है; चाहे मनुष्य, देव, नारक, तिर्यंच और निगोद का जीव है, ज्ञान का कुछ न कुछ अंश उसमें विद्यमान रहता ही है। जिसमें ज्ञान (चेतना) नहीं है, वह जीव नहीं है। ज्ञातिः ज्ञानम्-जानना ज्ञान है। जिससे जाना जाता है वह आत्मा है, जो आत्मा है वह भी ज्ञान है-जेण वि जाणइ से आया। जे आया से वित्राणे-यह आगम वचन ज्ञान और आत्मा की एकात्मकता सिद्ध करता है। प्रश्न होता है, ज्ञान जब आत्मा का अभिन्न गुण है तो फिर उसके भेद क्यों किये गये? ज्ञान तो एक सम्पूर्ण सूर्यमण्डल है, उसका प्रकाश विभक्त नहीं किया जा सकता। फिर ज्ञान के मति, श्रुत आदि पाँच भेद किस कारण किये गये ? अनुयोगद्वार सूत्र Illustrated Anuyogadvar Sutra NA * अना CRUROPOSAOPAROAR *ko ( ४ ) ROPATIOAVAOAVARATAORTHORTHAORMONIAN * * *" " " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007655
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages520
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size18 MB
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