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चित्र परिचय ११ ।
| Illustration No. 11
केवलि समुद्घात केवलज्ञानी के जब नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म अधिक व आयुष्य कर्म अल्प रहता है, तब उनको सम करने के लिए आत्म-प्रदेशों को फैलाकर समुद्घात करते हैं। पहले समय में वे आत्म-प्रदेशों को शरीर प्रमाण चौड़ाई में सम्पूर्ण लोक व्यापी दण्डाकृति बनाते हैं। दूसरे समय में आत्म-प्रदेशों को चारों दिशाओं में फैलाकर कपाट की आकृति बनाते हैं। तीसरे समय में उन प्रदेशों को मथानी (दही मथनी) के आकार में फैलाते हैं और चौथे समय में मथानी के बीच में रहे खाली स्थान को भरकर सम्पूर्ण लोक को आत्म-प्रदेशों से व्याप्त कर देते हैं। पाँचवें से आठवें समय विपरीत क्रम से उन आत्म-प्रदेशों का संकोचन करते हैं। आठवें समय में सभी आत्म-प्रदेश शरीर में समा जाते हैं।
-सूत्र १०८ (विशेष वर्णन वृत्ति पत्र १५१, तथा प्रज्ञापना सूत्र पद ३६)
KEVALI SAMUDGHAT When the Naam, Gotra, and Vedaniya karmas of an omniscient are comparatively more than the remaing Ayushya karma he activates the process of Kevali samudghat in order to equalize them. During the first samaya he expands the space-points of his soul in stick-shape having the width of his body and covering the whole expanse of universe in length. During the second samaya he expands it in all directions in door-shape. During the third samaya he expands it in the shape of a churning-stick. During the fourth samaya he fills up all the empty space and envelopes the whole lokakasha with the space-points of his soul. During the fifth to seventh samayas he starts shrinking in reverse order. During the eighth all the space-points retract into his body. (for more details see Vritti leaf 151 and Prajnapana Sutra, verse 36)
-Sutra : 108
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