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________________ * जड-पुद्गलो का पिण्ड, नाशमान सिद्ध करना। शरीर को जब नश्वर मान लिया, तो फिर उसके प्रति मोह, ममता, आसक्ति का बधन भी ढीला पड जाता है। धन, ऐश्वर्य, सत्ता के सुख-भोग का नशा भी उतर जाता है और व्यक्ति के जीवन मे आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है। दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदलने जैसी बात हो जाती है। हिंसा और क्रूरता मे विश्वास करने वाला मानव दयालु, करुणाशील बन जाता है। शरीर के सुखों मे आसक्त रहने वाला शरीर के प्रति इतना मोहरहित हो जाता है कि मारने के लिए जहर देने वाली अपनी पत्नी के प्रति भी कोई रोष नही, द्वेष नही। भयकर वेदना मे भी समभावपूर्वक धर्म की आराधना करता है। शरीर में अत्यन्त तीव्र दाह उत्पन्न होने पर भी शान्ति और समाधिभाव मे लीन रहता है। प्रदेशी राजा के जीवन का यह आश्चर्यजनक परिवर्तन बडा अनूठा है। जिसके हाथ, जिसकी तलवार दूसरो के खून से सनी रहती है। जिसके नाम से ही बडे-बडे चोर, डाकू, हत्यारे, अपराधी काँपते थे, एक दिन वही राजा भोजन मे विष देने वाले के प्रति भी किसी प्रकार का द्वेष-क्रोध नही करके समभाव के साथ मृत्यु का स्वागत करता है। कितना आमूलचूल परिवर्तन है एक ही व्यक्ति के जीवन में। महापापी एक दिन परम धार्मिक बन जाता है। इस परिवर्तन का कारण है धर्म मे विश्वास, आत्मा की सत्ता मे आस्था और अध्यात्ममय जीवन । __घोर नरक- मे जाने योग्य क्रूर कर्म करने वाला मरकर महान् वैभवशाली, प्रभावशाली देवता बनता है। गहरे गड्ढे से उठकर शिखर पर पहुंच जाता है। ऐसी रोचक चमत्कारी कथा है इस आगम के पात्र प्रदेशी राजा की। नाम की सार्थकता ___'रायपसेणियसूत्र' बारह उपागसूत्रो में दूसरा उपाग है। यह द्वितीय अग आगम सूत्रकृताग का उपाग है। मैं जब-जब इस शास्त्र को पढता हूँ या प्रवचन मे सुनाता हूँ तो मुझे भी बडा आनन्द आता है और श्रोताओं को भी, इसलिए सचित्र आगम प्रकाशन की श्रृंखला में इस वर्ष इसी आगम को लेने का निश्चय किया। ___ आगमो के सकलनकर्ता देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण और इस शास्त्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इसका नाम 'रायपसेणिय' मान्य किया है। जिसका सस्कृत रूप 'राजप्रश्नीय' होता है। टीकाकार मलयगिरि का कथन है-“इसमे राजा के प्रश्न है, इसलिए इसका नाम 'राजप्रश्नीय' या 'रायपसेणिय' ही उपयुक्त है।" वर्ण्य-विषय जैसा मैने पूर्व मे बताया, इस शास्त्र का मुख्य विषय-आत्मा का स्वतत्र अस्तित्त्व सिद्ध करके उसके प्रति आस्था उत्पन्न करना है। जैसे कुशल पाकशास्त्री (रसोइया) साधारण खाद्य वस्तु को मसाला, व्यजन आदि लगाकर इतना स्वादिष्ट और रुचिकर बना देता है कि भूख नही होने पर भी उसकी भीनी गध और महक से मुग्ध होकर खाने को जीभ ललचाती है, मुँह मे लार टपकने लगती है और खाने को हाथ बढ ही जाता है। उसी प्रकार इस शास्त्र मे सूर्याभदेव का वर्णन, उसके ऐश्वर्ययुक्त विमानो की अद्भुत से रचना, स्वर्ग के देव विमानो का वर्णन तथा भगवान महावीर के समवसरण मे सूर्याभदेव द्वारा रचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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