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विवेचन-इन बहत्तर प्रकार की कलाओ के वर्णन से प्राचीनकाल की शिक्षा पद्धति की एक झलक मिलती है। इस शिक्षण मे छात्र का सर्वांगीण विकास किया जाता था। " कुछ कलाएँ उसका शारीरिक विकास, शक्ति और सामर्थ्य को बढ़ाने वाली है, कुछ उसकी बुद्धि का
ई बहुमुखी विकास करने वाली हैं और कुछ कलाएँ उसके भीतर कला की सुरुचि, साहित्य रुचि, संगीत * प्रेम, नृत्य रुचि जगाती है और कुछ कलाएँ मात्र मनोरजन की भी है। कुछ कलाएँ उसे आजीविका के * योग्य विविध निर्माण कार्य का शिक्षण-प्रशिक्षण देने वाली है। इस प्रकार इन कलाओ के माध्यम से छात्र
का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास करके उसके चारित्रिक गुणों को भी दीप्त किया जाता है और उसे आजीविका उपार्जन मे स्वावलम्बी और समाज के साथ घुल-मिलकर जीने योग्य बनाती है। कुल मिलाकर ये कलाएँ एक सुसस्कारी जीवन का निर्माण करने वाली है।
यद्यपि कलाओ के विषय में प्रत्येक देश के साहित्य मे विचार किया गया है, तथापि हम अपने देश की ही मुख्य धर्म परम्पराओ के साहित्य को देखें तो सर्वत्र विस्तार के साथ कलाओ का विवरण उपलब्ध है। वैदिक-परम्परा के रामायण, महाभारत, शुक्रनीति, वाक्यपदीय आदि ग्रन्थो मे, बौद्ध-परम्परा के
ललितविस्तरा मे और जैन-परम्परा के समवायांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्ञातासूत्र, औपपातिकसूत्र, * कल्पसूत्र और इनकी व्याख्याओ मे इनका वर्णन किया गया है। किन्तु सख्या और नामो में अन्तर है।
कही कलाओ की सख्या चौसठ बताई है तो क्षेमेन्द्र के कलाविलास ग्रन्थ मे सौ से अधिक कलाओ का वर्णन किया है। बौद्ध-साहित्य में इनकी संख्या छियासी कही है। जैन-साहित्य मे प्रायः पुरुष योग्य बहत्तर
और महिलाओ के लिए चौसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। जिसकी पुष्टि जनसाधारण मे प्रचलित इस दोहे से हो जाती है
"कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार॥" जीवन धारण करने के लिए मानव को जैसे रोटी, कपडा और मकान जरूरी है, उसी प्रकार जीवन की सुरक्षा के लिए शारीरिक स्वास्थ्य व बल, मानसिक शुद्धि और विकास, तथा आजीविका के साधनो की व्यवस्था, ये भी आवश्यक है। पूर्व सूत्र मे उल्लिखित बहत्तर कलाओ के नामो मे ध्यान देने योग्य यह है कि उनके चयन मे दीर्घदृष्टि से काम लिया गया है। उनमे जीवन की सुरक्षा के तीनो अंगो के साधनो
का समावेश करने के साथ लोक-व्यवहारो के निर्वाह करने की क्षमता और प्राकृतिक पदार्थो को अपने * लिए उपयोगी बनाने और उनका समीचीन उपयोग करने की योग्यता अर्जित करने का लक्ष्य भी रखा
गया है।
विद्वत्ता के लिए तथा व्यापार की समृद्धि एव व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए जैसे आज * अनेक देशो की बोलियो और भाषाओ को जानना आवश्यक है, उसी तरह प्राचीनकाल मे भी कलाओ के * अध्ययन के साथ प्रत्येक व्यक्ति और विशेषकर समृद्ध परिवारो में जन्मे व्यक्तियो और देश-विदेश मे
व्यापार के निमित्त जाने वालो के लिए अनेक भाषाओ का ज्ञाता होना अनिवार्य था। दृढप्रतिज्ञ बालक के
पालन-पोषण के समय भिन्न-भिन्न देशो की दासियों का सम्पर्क उसे अनायास ही बहुभाषाविज्ञ और उन 8 देशो की कला-सस्कृति, रीति-रिवाज का ज्ञाता बना देता है। सम्पन्न कुलो मे उस समय ऐसा प्रचलन था।
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रायपसेणियसूत्र
(420)
Rar-paseniya Sutra
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