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तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, वंदति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी_ 'अम्हे णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स आभियोगा देवा देवाणुप्पियाणं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो।'
१३. तत्पश्चात् वे आभियोगिक देव सूर्याभदेव की आज्ञा को सुनकर हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् हृदय विकसित हो गया। दोनों हाथ जोडकर आवर्त्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि
करके "हे देव-स्वामिन् ! आपने जो कहा वह उचित है।" ऐसा कहकर विनयपूर्वक आज्ञा * स्वीकार की। “हे देव ! ऐसा ही करेगे' इस प्रकार से सविनय आज्ञा स्वीकार करके 9 उत्तर-पूर्व दिशा मे गये।
उधर जाकर वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्घात करके सख्यात योजन का रत्नमय दण्ड बनाया। उन रत्नो के नाम इस प्रकार है-(१) कर्केतन रत्न, (२) वज्र रत्न, * (३) वैडूर्य रत्न, (४) लोहिताक्ष रत्न, (५) मसारगल्ल रत्न, (६) हंसगर्भ रत्न, (७) पुलक
रन, (८) सौगन्धिक रत्न, (९) ज्योति रत्न, (१०) अजन रत्न, (११) अंजन पुलक रत्न, (१२) रजत रत्न, (१३) जातरूप रत्न, (१४) अंक रत्न, (१५) स्फटिक रत्न, (१६) रिष्ठ रत्न। इन रत्नों के यथा बादर-(असार-अयोग्य) पुद्गलों को अलग किया और फिर यथा
सूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलो को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात 0 करके उत्तरवैक्रिय रूपो की विकुर्वणा की।
उत्तरवैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके अर्थात् अपना-अपना वैक्रियलब्धिजन्य * उत्तरवैक्रिय शरीर बनाकर वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, अत्यन्त तीव्र, चण्ड, जवन, * वेगयुक्त ऑधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे असख्यात द्वीप समुद्रों को पार करते - हुए जहाँ जम्बूद्वीपवर्ती भारतवर्ष की आमलकप्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आये।।
वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, उनको " वंदन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा* “हे भदन्त ! हम सूर्याभदेव के आभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वदन करते है,
नमस्कार करते है, आप का सत्कार-सम्मान करते है एवं कल्याणरूप, मगलरूप, देवरूप 5 और चैत्यरूप आपकी पर्युपासना करते हैं।'
- रायपसेणियसूत्र
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Rar-paseniya Sutra
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