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________________ जइ णं भंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एणं महं ॐ अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो णं सद्दहेजा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिसे जुन्ने जाव किलंते नो पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपतिट्ठिता मे पइण्णा तहेव। २५४. तब प्रदेशी राजा ने पुनः केशीकुमार श्रमण से कहा_ “हे भदन्त ! यह आपकी बुद्धि से कल्पित उपमा पर्याप्त नही है। किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत तर्क से यह सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है। वह तर्क इस प्रकार है-भदन्त ! कोई एक तरुण बलवान पुरुष एक विशाल बहुत बडे लोहे के भार को, सीसे के भार को या रॉगे के भार को उठाने में समर्थ होता है अथवा नहीं?' __केशीकुमार श्रमण–“हाँ, समर्थ होता है।" __ प्रदेशी-“भदन्त ! किन्तु जब वही पुरुष वृद्ध हो जाता है तब वृद्धावस्था के कारण शरीर - जर्जरित, शिथिल, झुर्रियों वाला एवं अशक्त हो जाता है, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकडी ले लेता है। दंत-पक्ति में से बहुत से दॉत गिर चुके होते हैं, खाँसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमजोर हो जाता है। भूख-प्यास से व्याकुल रहता है, दुर्बल " और थका-मॉदा हो जाता है तब उस वजनदार लोहे के भार को, रॉगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है। हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर होने पर भी उस विशाल लोहे - के भार आदि को उठाने में समर्थ होता तो मै यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है। लेकिन वह पुरुष वृद्ध हो जाने से एक विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ नहीं होता है। अतः मेरी यह धारणा सुसंगत-समीचीन है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं। किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं।" 254. Then king Pradeshi again said-- "Reverend Sir ! The illustration which is a creation of your intellect is not sufficient. From my logical argument it is crystal clear that there is no difference between soul and body. That Ko argument is as under-Sir ! Can a young well-built person be capable of lifting a heavy load of iron, of glass or of another metal?" Keshi Kumar Shraman said—“Yes, he can ?" Pradeshi said—“But when the same person becomes old, he he because of old age becomes weak, feeble and wrinkles appear on his रायपसेणियसूत्र (350) Rai-paseniya Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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