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________________ प्रदेशी –“क्योंकि भदन्त ! वह स्थान अपवित्र है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है।" केशीकुमार श्रमण-‘“तो इसी प्रकार प्रदेशी ! इसी सेयविया नगरी मे तुम्हारी जो दादी धार्मिक थीं, धर्मानुरागपूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं और हमारी मान्यतानुसार वह बहुत से पुण्य कर्मों का संचय करके देवलोक में उत्पन्न हुई हैं तथा उन्हीं दादी के तुम प्यारे पौत्र हो। तुम्हारी दादी भी शीघ्र ही मनुष्यलोक मे आने की अभिलाषा रखती हैं, किन्तु आ नहीं सकतीं। हे प्रदेशी ! तत्काल उत्पन्न देव देवलोक से मनुष्यलोक में आने की आकांक्षा रखते हुए भी इन चार कारणों से नही आ पाते हैं । वे चार कारण इस प्रकार हैं (१) तत्काल उत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन हो जाने से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते है, न ध्यान देते हैं और न उनकी इच्छा करते हैं । कामभोग नहीं छोड़ पाने के कारण वे मनुष्यलोक में आने की आकांक्षा रखते हुए भी आ नहीं पाते हैं । (२) देवलोक सम्बन्धी दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् तल्लीन हो जाने से तत्काल उत्पन्न देव का मनुष्य-जन्म सम्बन्धी प्रेम (आकर्षण) व्युच्छिन्न हो जाता (टूट जाता है और देवलोक सम्बन्धी अनुराग जागृत हो जाने से मनुष्यलोक में आने की इच्छा होने पर भी यहाँ आ नहीं पाते हैं। (३) तत्काल उत्पन्न देव देवलोक में जब दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित और तल्लीन हो जाते है तब वे सोचते तो है कि 'अब जाऊँ, अब जाऊँ, कुछ समय बाद जाऊँगा ।' किन्तु उतने समय मे तो उनके इस मनुष्यलोक के अल्प आयुष्य वाले सम्बन्धी जन कालधर्म ( मरण) को प्राप्त हो चुकते हैं जिससे मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी (प्रमाद के कारण वे यहाॅ नहीं आ पाते है । (४) वे अधुनोत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगो में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उनको मर्त्यलोक सम्बन्धी तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल और अप्रिय लगती है । क्योंकि वह मानव लोक की कुत्सित दुर्गन्ध ऊपर आकाश में चार-पाँच सौ योजन तक फैल जाने से मनुष्यलोक में आने की इच्छा रखते हुए भी वे उस दुर्गन्ध के कारण आने में हिचकिचाने लगते है । हे प्रदेशी । इसीलिए मनुष्यलोक में आने के इच्छुक होने पर भी अधुनोत्पन्न देव चार कारणों से देवलोक से यहाॅ आ नहीं सकते हैं। इसलिए तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है । जीव शरीर नही है और न शरीर जीव है । " रायपसेणियसूत्र Jain Education International (328) For Private Personal Use Only Rai-paseniya Sutra www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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