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(२) उवस्सयगयं,
(३) गोयरग्गगयं समणं वा जाव पज्जुवासइ विउलेणं जाव पडिलाभेइ, अट्ठाई जाव पुच्छइ एएण वि,
(४) जत्थ वि य णं समणेण वा माहणेण वा अभिसमागच्छइ तत्थ वि य णं णो हत्थेण वा जाव आवरेत्ताणं चिद्वइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए।
तुझं च णं चित्ता ! पएसी राया आरामगयं वा ते चेव सव्वं भाणियव्वं आइल्लएणं गमएणं जाव अप्पाणं आवरेत्ता चिट्ठइ, तं कहं णं चित्ता ! पएसिस्स रनो धम्ममाइक्खिस्सामो ?
(ख) “हे चित्त चार कारणो से जीव केवलिभाषित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। वे चार कारण इस प्रकार हैं
(१) आराम में अथवा उद्यान मे पधारे हुए श्रमण या माहन को देखकर जो वन्दन करता है, नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है, तत्त्वों को पूछता है, तो वह जीव * केवलिप्ररूपित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है।
(२) इसी प्रकार जो जीव उपाश्रय में रहे हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार र करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता हुआ तत्त्व आदि धर्म पूछता है तो वह केवलिप्ररूपित धर्म को सुन सकता है।
(३) इसी प्रकार जो जीव गोचरी-भिक्षाचर्या के लिए आये हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है तथा विपुल आहार आदि से उन्हें प्रतिलाभित करता है, उनसे धर्म के, शास्त्र के तत्त्वों आदि को पूछता है, वह जीव इस निमित्त से भी केवलिभाषित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है।
(४) इसी प्रकार हे चित्त ! जो जीव जहाँ कही श्रमण या माहन का सुयोग मिलने पर हाथो, वस्त्रो, छत्ता आदि से स्वय को छिपाता नहीं है, (अपितु उनके सत्संग मे आता है) वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का लाभ प्राप्त कर सकता है।
लेकिन, हे चित्त ! तुम्हारा प्रदेशी राजा जब उद्यान में आये हुए श्रमण या माहन के सन्मुख ही नहीं आता है यावत् अपने को छिपा लेता है, तो फिर प्रदेशी राजा को मैं कैसे धर्म का उपदेश दे सकूँगा?"
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केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा
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Kesh Kumar Shraman and King Pradeshi
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