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________________ चित्त सारथी की जीवनचर्या २२२. तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे, उवलद्ध - पुण्ण - पावे; आसव - संवर - निज्जर - किरियाहिगरण - बंध - मोक्ख - कुसले, असहिज्जे देवासुर - णाग - सुवण्ण - जक्ख - रक्खस - किन्नर - किंपुरिस - गरुलगंधव्य - महोरगाईहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, णिव्वितिगिच्छे, लट्ठे गहियट्ठे पुच्छियट्टे अहिगयट्टे विणिच्छियट्टे, अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ते । 'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणट्टे । ऊ सियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे चाउद्दसमुद्दि पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे, समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण - पाण- खाइम - साइमेणं - पीढ - फलग - सेज्जा - संथारेणं - वत्थ - पडिग्गह- कं बल पायपुंछणेणं ओसह - भेसज्जेणं पडिला भेमाणे, अहापरिग्गहेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे, जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव रायववहाराणि य ताइं जियसत्तुणा रण्णा सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहर। २२२. तब वह चित्त सारथी श्रमणोपासक हो गया। उसने जीव - अजीव पदार्थों का स्वरूप समझ लिया था। पुण्य-पाप के भेद को जान लिया था । आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण ( क्रिया का आधार, जिसके आधार से क्रिया की जाये), बंध, मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हो गया था, वह दूसरे की सहायता का अनिच्छुक था अर्थात् अपना निर्णय करने व कुतीर्थिको व कुतर्कों के खंडन करने में सहायता की अपेक्षा वाला नही रहा। देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, महोरग आदि कोई भी देवता उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित करने में समर्थ नहीं थे । निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकारहित था, आत्मोत्थान के सिवाय अन्य किसी प्रकार की आकांक्षा से रहित था । निर्विचिकित्सा - धर्मक्रिया के फल के प्रति उसके मन में शंका नहीं थी । लब्धार्थ - (गुरुजनो से ) यथार्थ तत्त्व का सम्यक् बोध प्राप्त कर लिया था। ग्रहीतार्थ - गुरुवचनों से ज्ञान ग्रहण कर लिया था। विनिश्चितार्थ- सत्य तत्त्व का पूर्ण निश्चय कर चुका था । उसकी अस्थि और मज्जा धर्मानुराग में रम चुकी थी अर्थात् उसकी रग-रग में निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति प्रेम और अनुराग व्याप्त था । वह दूसरों को सम्बोधित करते हुए कहता था कि- केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा Jain Education International (275) Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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