________________
रायपसेणियसूत्र
आमुख
नदीसूत्र मे ग्यारह अग तथा बारह उपाग आगमो का वर्णन है। उसमे द्वितीय अग आगम सूत्रकृताग के उपाग रूप मे रायपसेणियसूत्र का उल्लेख है। यह दूसरा उपाग है।
सूत्रकृताग के साथ इस आगम का सम्बन्ध जोडते हुए टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने बताया है“सूत्रकृताग मे क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी आदि तीन सौ तिरेसठ विभिन्न मतो का वर्णन है। उनमे अक्रियावादी (नास्तिक/चार्वाक) मत को आधार मानकर राजा प्रदेशी की मान्यताओ को प्रस्तुत किया है तथा उनका युक्तिपूर्ण समाधान भी किया है केशीकुमार श्रमण ने।' स्थानागसूत्र (८/२२) मे 'अक्रियावादी' शब्द का प्रयोग दो अर्थो मे मिलता है-(१) अनात्मवादी, तथा (२) एकान्तवादी। अक्रियावादी के आठ भेद इस प्रकार है-एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निमित्तवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी और असत् परलोकवादी। इनमे प्रथम छह तो एकान्तदृष्टि वाले एकान्तवादी है और समुच्छेदवादी तथा असत् परलोकवादी दो अनात्मवादी है। उपाध्याय यशोविजय जी आदि जैन दार्शनिको ने चार्वाक जैसे नास्तिको को अक्रियावादी कहा है और एकान्तवादियो को भी नास्तिक मत मे सम्मिलित किया है। (नयोपदेश १२३) ।
इस सूत्र मे मुख्य वर्णन प्रदेशी राजा का है। प्रदेशी राजा अपने समय का कट्टर नास्तिक अर्थात् घोर अनात्मवादी था। वह स्वभाव से भी अत्यन्त क्रूर, कठोर और धर्मद्वेषी था। इसलिए सूत्रकृताग में वर्णित - अक्रियावादी मत के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित करके इस रायपसेणियसूत्र को सूत्रकृताग का उपाग माना गया है।
रायपसेणियसूत्र के प्रथम विभाग मे सूर्याभ देवता का वर्णन है, जो सौधर्म देवलोक मे उत्पन्न होने पर भगवान महावीर की वन्दना करने के लिए अपनी समस्त दिव्य ऋद्धि के साथ उपस्थित होता है और वहाँ ७ अपनी देवऋद्धि का प्रदर्शन करता है।
देवऋद्धि के प्रदर्शन का यह दृश्य देखकर गणधर गौतम स्वामी भगवान से पूछते है-“यह सूर्याभ देवता कौन है ? इसने ऐसा क्या तप, दान व धर्माचरण किया जिसके फलस्वरूप इसे दिव्य देव ऋद्धि की प्राप्ति हुई ?' तब भगवान महावीर उसके पूर्वभव का वर्णन सुनाते है, जो दूसरे विभाग में प्रदेशी राजा और केशीकुमार श्रमण के वार्तालाप के रूप मे ग्रथित है। यह वर्णन ज्ञातासूत्र (अ १३) वर्णित दर्दुराक देव की तरह उसी शैली
मे है। पहले देवभव की देवऋद्धि का कथन करके फिर उसकी पृष्ठभूमि मे धर्माराधना का वर्णन किया गया है। है जैसे किसी हरे-भरे फलवान वृक्ष को देखकर उसके बीज के सम्बन्ध मे जिज्ञासा की जाती है, उसी प्रकार
धर्माराधना के परिणामस्वरूप प्राप्त दिव्य देवऋद्धि को देखकर उसके कारणभूत साधनो के सम्बन्ध मे जिज्ञासा उत्पन्न होती है। जिज्ञासा जागृत होने पर भगवान महावीर समाधान करते हुए उसकी धर्माराधना का वर्णन करते है।
रायपसैणियसूत्र के इस प्रथम भाग मे भगवान महावीर की धर्मसभा मे सूर्याभदेव के आगमन से वर्णन प्रारम्भ होता है।
सूर्याभ वर्णन
(1)
Description of Suryabh Dev
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org