________________
छप्पय - परिभुज्जमाणकमलाओ, अच्छविमल-सलिलपुण्णाओ, पडिहत्थभमंतमच्छकच्छभअग सण - महुण - पविचरिताओ ।
पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्खित्ताओ, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ। अप्पेगइयाओ आसवोयगाओ, अप्पेगइयाओ वारुणोयगाओ, अप्पेगइयाओ खीरोयगाओ, अप्पेगइयाओ घओयगाओ, अप्पेगइयाओ खोदोयगाओ, अप्पेगइयाओ पगतीए उयगरसेणं पण्णत्ताओ।
पासादीयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ।
१४३. उन वनखडों में जहाँ-तहाँ स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-छोटी चौरस वापिकायें - बावड़ियाँ, गोल पुष्करिणियाँ, दीर्घिकायें (सीधी बहती नदियाँ), गुंजालिकायें (टेढी-तिरछी - बॉकी बहती नदियाँ), फूलों से ढँकी हुई सरोवरों की पंक्तियों, सर-सर पंक्तियाँ (पानी के प्रवाह के लिए नहर द्वारा एक-दूसरे से जुडे हुए तालाबों की पंक्तियों) एवं बिल पंक्तियाँ - कुओं की कतारें बनी हुई हैं।
इन सभी वापिकाओं आदि का बाहरी भाग स्फटिक मणि की भाँति अतीव निर्मल, स्निग्ध - कमनीय है । इनके तट रजतमय हैं और तटवर्ती भाग अत्यन्त सम - चौरस हैं। ये सभी जलाशय वज्ररत्नरूपी पाषाणों से बने हुए हैं। इनके तलभाग ( भूतल - दि सरफेस ऑफ दि अर्थ ) तपनीय लाल स्वर्ण से निर्मित हैं तथा उन पर शुद्ध स्वर्ण और चॉदी की बालू बिछी है। तटों के समीपवर्ती ऊँचे प्रदेश (मुंडेर) वैडूर्य और स्फटिक मणि-पटलों के बने है। इनमें उतरने और निकलने के स्थान सुखकारी हैं। घाटों पर अनेक प्रकार की मणियाँ जडी हुई हैं।
चार कोनों वाली वापिकाओं और कुओं में अनुक्रम से नीचे-नीचे पानी अगाध एवं शीतल है तथा कमलपत्र, भिस - ( कमलकंद) और मृणालों से ढका हुआ है। ये सभी जलाशय विकसित-खिले हुए उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, शतपत्र तथा सहस्र-पत्र आदि नाना जाति के कमलों से सुशोभित हैं और उन पर पराग-पान के लिए भ्रमरो के समूह गुजारव कर रहे हैं। ये स्वच्छ-निर्मल जल से भरे हुए हैं। कल्लोल करते हुए मगरमच्छ, कछुआ आदि बेरोकटोक इधर-उधर घूम-फिर रहे हैं और अनेक प्रकार के पक्षिसमूह वहाँ आते-जाते विहार करते रहते हैं ।
ये सभी जलाशय एक - एक पद्मवरवेदिका और एक-एक वनखड ( बगीचों) से परिवेष्टित हैं।
रायपसेणियसूत्र
Jain Education International
(136)
For Private Personal Use Only
Rai-paseniya Sutra
www.jainelibrary.org