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I pay homage to the great austere ascetic Arya Rakshit, who protected the all important possession of right conduct belonging to him and the other practicers; who also protected the jewellery-chest like Anuyog (the subjectwise classified divisions of vast scriptural knowledge).
विवेचन-श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार जैन श्रुतज्ञान के ह्रास का दूसरा युग आर्य वज्र के पश्चात् आरम्भ होता है । दश पूर्वों का ज्ञान आर्य वज्र तक विद्यमान था किन्तु उनके पश्चात् क्रमशः उसका ह्रास होने लगा। काल के प्रभाव से मेधा व धारणा शक्ति दोनों की हीनता बढ़ने लगी थी और विद्यमान श्रमण किसी प्रकार श्रुतज्ञान को यथासम्भव बचाये रखने के उपाय खोजने में जुट गये थे।
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आर्य रक्षित - आर्य रक्षित का जन्म मालव प्रदेश के दशपुर ( मन्दसौर) निवासी ब्राह्मण सोमदेव के घर में वी. नि. ५२२ (५३ वि., ४ ई. पू.) में हुआ था। इनकी माता जैनधर्मावलम्बी 55 थी इस कारण वैदिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् उसने ही इन्हें जैन श्रुतज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा दी। ब्राह्मण कुमार रक्षित आचार्य तोषलि - पुत्र के पास गये और ज्ञान दान की याचना की। तोषली पुत्र ने जब उन्हें बताया कि जब तक वे दीक्षित नहीं होते उन्हें श्रुतज्ञान नहीं दिया जा सकता। दृढ़मना रक्षित ने तत्काल दीक्षा ग्रहण की और आचार्य के साथ वहाँ से प्रस्थान कर गये। अल्प समय में ही ग्यारह अंगों का अध्ययन कर रक्षित ने तोषलि-पुत्र को
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बहुत प्रभावित
किया
और उन्होंने दश पूर्वों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु आर्य रक्षित को वज्रस्वामी के पास भेज दिया। आर्य रक्षित जैसा अपने काल का विशिष्ट मेधावी व्यक्ति भी नौ पूर्वों का सम्पूर्ण तथा दसवें पूर्व का आंशिक ज्ञान ही प्राप्त कर सका। आर्य रक्षित पुनः आचार्य तो लि-पुत्र के पास लौट आये। वी. नि. ५४४ में तोषलि-पुत्र ने उन्हें युग-प्रधान पद देकर आचार्य बना दिया।
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आर्य रक्षित ने काल के साथ मेधा व शक्ति ह्रास की प्रक्रिया को पहचाना और समस्त श्रुतज्ञान को चार विषयों में विभक्त कर अध्येता के लिए अध्ययन प्रक्रिया को सरल बनाने का महान् व क्रान्तिकारी कार्य किया । इस विभाजन से पूर्व क्रमशः एक-एक आगम की वाचना दी जाती थी और प्रत्येक आगम के सूत्र, तत्त्वज्ञान, आचार धर्म, पालनकर्त्ताओं के उदाहरण, साधना क्षेत्र के नियम आदि एक साथ बताये जाते थे। आर्य रक्षित ने समस्त अंग वाङ्मय को चार अनुयोगों में विभाजित कर दिया। ये विभाजन हैं - चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग तथा द्रव्यानुयोग । इस विभाजन से पश्चात्वर्ती अध्येताओं तथा व्याख्या करने वालों को बहुत लाभ मिला। शास्त्राभ्यास का मार्ग सरल बना और लोप होते श्रुतज्ञान को यथासम्भव सुरक्षित रखने का मार्ग प्रशस्त हो गया। आज की जैन परम्परा इसके लिए आर्य रक्षित की सदा ऋणी रहेगी। आर्य रक्षित का स्वर्ग गमन वी. नि. ५९७ (१२८ वि., ७१ ई.) में हुआ। Elaboration-According to the popular belief in the Shvetambar tradition, the second phase in the decline of the scriptural knowledge
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5 युग-प्रधान स्थविर वन्दना
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Obeisance of the Era-Leaders
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