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Ballissah saw the golden periods of the Maurayan emperors Chandragupta, Bindusar and Samprati, there gradual fall followed by the cruel rule of Pushaymitra Shung. He was a witness to the two best periods in Jain history-the reigns of emperor Samprati and Maha Meghvahan Kharvel of Kalinga.
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२८ : हारियगुत्तं साइं च वंदिमो हारियं च सामज्जं । वंदे कोसियगोत्तं, संडिल्लं अज्जजीयधरं ॥
अर्थ-हारीत गोत्रीय स्वाति को, हारीत गोत्रीय श्री श्यामाचार्य को वन्दन करता हूँ और वन्दना करता हॅू कौशिक गोत्र के आर्य जीतधर शाण्डिल्य को ।
I pay homage to Swati of Hareet gotra, Shyamacharya also of
the Hareet gotra, and then to Arya Jeetdhar Shandilya of the Kaushik gotra.
विवेचन- आचार्य सुहस्ती के पश्चात् कार्य-विभाजन के अनुसार आचार्यों की विभिन्न
पट्टावलियाँ मिलती हैं जिनमें अनेक महत्त्वपूर्ण आचार्यों के नाम हैं। यहाँ मुख्यतया वाचक वंश ( आगम वाचना देने वाले) के आचार्यों के नाम हैं।
आर्य स्वाति - आचार्य बलिरसह के पश्चात् उनके शिष्य आर्य स्वाति वाचनाचार्य बने । ये हारीत गोत्रीय थे। इनके विषय में जानकारी का अभाव है। इनका स्वर्गवास वी. नि. ३३५ - (१३४-१३३ वि. पू., १९२ ई. पू.) में अनुमानित है।
श्यामाचार्य-इनका जन्म हारीत गोत्रीय परिवार में वी. नि. २८० में हुआ । २० वर्ष की अवस्था में इन्होंने आचार्य स्वाति के पास दीक्षा ग्रहण की । ३५ वर्ष की ज्ञान-साधना के पश्चात् वी. नि. ३३५ में वाचनाचार्य तथा युग-प्रधान बने । श्यामाचार्य द्रव्यानुयोग के अपने समय के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इन्हीं को निगोद व्याख्याता कालकाचार्य प्रथम माना जाता है। सौधर्मेन्द्र ने सीमंधर स्वामी से आपके ज्ञान की प्रशंसा सुनकर निगोद विषयक प्रश्न कर परम संतोष प्राप्त किया था। आपने ही पन्नवणा - प्रज्ञापना सूत्र की रचना की थी जो तत्त्वज्ञान का अनूठा भण्डार माना जाता है। श्यामाचार्य का कार्यकाल भारतीय इतिहास में श्रमण परम्पराओं के विरोध का काल रहा है। पुष्यमित्र शुंग द्वारा यज्ञ परम्परा की पुनर्स्थापना तथा जैन व बौद्धों पर अत्याचार के इस कठिन काल में श्यामाचार्य ने श्रमण परम्परा को स्थिरता प्रदान करने का कठिनतम कार्य किया। आपका देहावसान वी. नि. ३७६ (९३ वि. पू., १५0 ई. पू.) में हुआ ।
आर्य शाण्डिल्य (स्कंदिलाचार्य ) - श्यामाचार्य के निधन के पश्चात् वी. नि. ३७६ में आर्य शाण्डिल्य वाचनाचार्य तथा युग-प्रधानाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। इनका जन्म वी. नि. ३०६ में हुआ था तथा दीक्षा वी. नि. ३२८ (१४१ वि. पू.) में । ऐसी मान्यता है कि जीत मर्यादा नामक शास्त्र की रचना करने तथा जीत व्यवहार की प्रतिपालना में विशेष जागरूक रहने के युग-प्रधान स्थविर वन्दना
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