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________________ 5步步步步步步步步步步步为55555555555555555555$ (४) भावओ ‘णं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति, पण्णविजंति, ॐ परूविज्जंति, दसिजति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति, तया (ते) भावे पडुच्च साइअं सपज्जवसि। खाओवसमिअं पुण भावं पडुच्च अणाइअं अपज्जवसि। ___ अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसिअं च, अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसिअं (च) सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणिअं पज्जवक्खरं निफ्फज्जइ। सव्वजीवाणं पि अ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा। 'सुदृवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं।' से त्ति साइअं सपज्जवसिअं, से तं अणाइयं अपज्जवसि। अर्थ-प्रश्न-यह सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित श्रुत क्या है ? उत्तर-यह द्वादशांग गणिपिटक पर्यायनय की अपेक्षा से सादि सपर्यवसित है और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अनादि अपर्यवसित है। वह श्रुतज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादित किया गया है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से। उन चारों में (१) द्रव्य की अपेक्षा से, एक पुरुष सम्बन्धी सम्यकश्रुत सादि सपर्यवसित है और * अनेक पुरुषों सम्बन्धी अनादि अपर्यवसित है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा से, सम्यकश्रुत पाँच भरत और पाँच ऐरवत में सादि सपर्यवसित हैं और महाविदेह क्षेत्र में अनादि अपर्यवसित है। (३) काल की अपेक्षा से, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के संदर्भ में सादि सपर्यवसित है ॥ और न उत्सर्पिणी और न अवसर्पिणी के संदर्भ में अनादि अपर्यवसित है। (४) भाव की अपेक्षा से, सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित भाव जन सामान्य रूप से कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निर्देशित किये जाते हैं, तथा उपदर्शित किये जाते हैं तब उन भावों के संदर्भ में सम्यकश्रुत सादि सपर्यवसित होते हैं। किन्तु क्षयोपशम भावों के संदर्भ में अनादि अपर्यवसित होते हैं। अथवाभवसिद्धिक जीव का श्रुत सादि सपर्यवसित है और अभवसिद्धिक जीव का श्रुत अनादि अपर्यवसित है। सम्पूर्ण आकाश प्रदेशाग्र को सब आकाश प्रदेशों से अनन्तगुणा करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है। सभी जीवों का अक्षर (श्रुतज्ञान) का अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित फ़ आवरणरहित रहता है। यदि वह भी आवरण को प्राप्त हो जाये तो उसमें जीव अजीव 卐 ॐ श्री नन्दीसूत्र ( ३५८ ) Shri Nandisutra u 0555555550 iF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听FFFFFFF $听听听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听 5听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听5年 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007652
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1998
Total Pages542
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_nandisutra
File Size19 MB
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