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AS55555555555555555550 E (२) धम्मे अधम्मसण्णा-धर्म को अधर्म समझना। जैसे-आत्म-शुद्धि के मार्ग को अधर्म के
समझना। ॐ (३) उम्मग्गे मग्गसण्णा-उन्मार्ग अथवा दुःख के मार्ग को सन्मार्ग अथवा सुख का मार्ग
समझना। म (४) मग्गे उमग्गसण्णा-सन्मार्ग को उन्मार्ग समझना। जैसे-सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र जो मोक्ष मार्ग है उसे दुःख का मार्ग समझना।
(५) अजीवेसु जीवसण्णा-अजीव को जीव मानना। जैसे-संसार में जो कुछ भी है वह ॐ ही है, अजीव पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है ऐसा भ्रम पालना।
(६) जीवेसु अजीवसण्णा-जीवों को अजीव समझना। जैसे-संसार में केवल मनुष्य तथा पशु 卐 ही जीवधारी हैं अन्य किसी में जीव अस्तित्व ही नहीं है।
(७) असाहुसु साहुसण्णा-असाधु को साधु समझना। जो व्यक्ति धन-वैभव, स्त्री-पुत्र आदि + किसी से भी विरक्त नहीं है-ऐसे व्यक्ति को साधु मानना। जिसमें साधु के गुण नहीं हों केवल ॐ वेश साधु का हो उसे साधु मानना।
(८) साहुसु असाहुसण्णा-साधु को असाधु मानना। जिसमें साधुत्व है उसे वेश अथवा मतभेद के कारण असाधु समझना।।
(९) अमुत्तेसु मुत्तसण्णा-अमुक्त को मुक्त समझना। जो आत्मा को कर्ममल से रहित कर जन्म-मृत्यु के बंधन से नहीं छूटे हैं उन्हें मुक्त मानना।
(१०) मुत्तेसु अमुत्तसण्णा-मुक्त को अमुक्त मानना। मनुष्य कभी मुक्त नहीं होता, आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता, आत्मा कभी कर्म के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। यह मानकर जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं उन्हें भी अमुक्त मानना।
इन सभी को सरल सामान्य भाषा में कहें तो गुणावगुणों के सम्यक् निर्णय के बिना सत्य को मिथ्या और मिथ्या को सत्य मानना मिथ्यात्व है। क्योंकि ज्ञान आत्म-सामर्थ्य सापेक्ष है। अतः सामर्थ्य के विकास के साथ व्यक्ति मिथ्या को त्यागकर सत्य की ओर बढ़ता है। किन्तु मिथ्यात्वीक अपने दुराग्रह के कारण अपना विकास मार्ग स्वयं बन्द कर देता है।
मिथ्याश्रुतों के उदाहरण के पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि मिथ्याश्रुत मिथ्यादृष्टि के कारण हैं अपने आपमें नहीं। अर्थात् ज्ञान अपने आपमें मिथ्या नहीं है। मिथ्यादृष्टि
उसे अपने मिथ्यात्व से कलुषित कर अहित की दिशा में ले जाता है। इस कारण वह मिथ्याश्रुतकी __ बन जाता है। वही ज्ञान सम्यग्दृष्टि से युक्त व्यक्ति के लिए सम्यग्ज्ञान बन जाता है। क्योंकि वह
ज्ञान को अपनी सम्यग्दृष्टि के कारण परम श्रेय की दिशा में ले जाता है।
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श्रुतज्ञान ( ३५५ )
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