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________________ 在AF听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F FF听听听听听听 अवग्रह AVAGRAH ५४ : से किं तं उग्गहे? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य। अर्थ-प्रश्न-यह अवग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर-अवग्रह दो प्रकार का बताया गया है-(१) अर्थावग्रह, और (२) व्यंजनावग्रह। 54. Question-What is this avagrah? Answer-Avagrah is said to be of two types(1) Arthavagrah, and (2) Vyanjanavagrah. विवेचन-अर्थ से अभिप्राय है वस्तु अथवा द्रव्य। तथा व्यंजन से अभिप्राय है पर्याय (द्रव्य की अवस्था विशेष) तथा गुणों से। यद्यपि सूत्र में प्रथम अर्थावग्रह तथा फिर व्यंजनावग्रह का उल्लेख है, तथापि उनकी उत्पत्ति का क्रम इससे ठीक विपरीत होता है। पहले व्यंजनावग्रह होता है और फिर अर्थावग्रह। व्यंजन शब्द का अर्थ है जिसके द्वारा व्यक्त किया जाए अथवा जो व्यक्त हो। उस व्यक्त का ग्रहण द्रव्येन्द्रियों से तथा भावेन्द्रियों से होता है। द्रव्येन्द्रियाँ औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के “अंगोपाङ्ग नामकर्म" के उदय से प्राप्त होती हैं तथा भावेन्द्रियाँ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से। साथ ही ये दोनों परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहती हैं। जिस श्रेणी के जीवों में जितनी इन्द्रियाँ होती हैं वे उनके द्वारा उतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकते है हैं। उदाहरणार्थ एकेन्द्रिय जीव केवल स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ही अवग्रह कर सकता है। जबकि पंचेन्द्रिय जीव पाँचों इन्द्रियों से। यह व्यंजनावग्रह दर्शनोपयोग के तत्काल पश्चात् होता है। यह मन्दगति अथवा धीरे-धीरे होने वाला है, बिना किसी पूर्व अभ्यास के सहज होता है तथा क्षयोपशम की मंदता में होता है। इसका काल असंख्यात समय है। इसके तीन अंग होते हैं(१) उपकरणेन्द्रिय, (२) उपकरणेन्द्रिय का अपने ग्राह्य विषय के साथ संयोग, और (३) विषय से व्यक्त होने वाला शब्दादि। व्यंजनावग्रह के अंत में अर्थावग्रह होता है अर्थात् व्यंजनावग्रह जब पर्यायों तथा गुणों को ग्रहण कर लेता है तब उन पर्यायों तथा गुणों पर आधारित उस द्रव्य अथवा वस्तु-विशेष का + अपेक्षाकृत पूर्ण किन्तु सामान्य ज्ञान होता है। व्यंजनावग्रह की अपेक्षा अर्थावग्रह पटुक्रमी अथवा के शीघ्र होने वाला होता है, यह अभ्यास द्वारा होता है तथा इसमें क्षयोपशम की अपेक्षाकृत # अधिकता रहती है। AFSF5FFFFFFF听听听听听听听听听听听听听听听听听 ॥ श्रुतनिश्रित मतिज्ञान ( ३०७ ) Shrutnishrit Mati-Jnanay $5%步步步为5岁岁岁岁岁岁岁岁岁岁5岁岁岁5岁岁岁步步步步步生 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007652
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1998
Total Pages542
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_nandisutra
File Size19 MB
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