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भगवान अजितनाथ के काल में थी यह मान्यता है । इतने अग्निकाय जीवों को, समस्त आकाश को सूक्ष्म टुकड़ों (प्रदेशों) में बाँटकर प्रत्येक में एक-एक जीव रख दिया जाये । लोकाकाश व्याप्त होने पर शेष रहे जीवों को अलोकाकाश के प्रदेशों में व्याप्त कर दिया जाये। जितने क्षेत्र में ये समस्त जीव व्याप्त हो जाये वह क्षेत्र अवधिज्ञान का अधिकतम क्षेत्र होता है। यह एक काल्पनिक उदाहरण है जिससे अवधिज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र का व्यावहारिक भाषा में अनुमान किया जा सकता है।
Elaboration-The number of fire-bodied beings in this universe is minimum as compared to that of the other immobile beings. These are of four types-aparyapt-sukshma (micro-being that has not fully developed), paryapt-sukshma (fully developed micro-being), aparyaptbadar (gross being that has not fully developed ), paryapta-badar (fully developed gross being). These beings are spread all over the lokakash or the inhabited universe. It is believed that the maximum number of this type of beings was during the period of Bhagavan Ajitnath. If the space is divided into infinitely small sections or space points and one such being is placed on each one of these space points; when the inhabited universe is filled the remaining beings are spilled over into such space points in the alokakash or uninhabited universe; then the total area covered makes up the maximum scope of Avadhijnana. This is a hypothetical example to give an idea of the vastness of the maximum scope of Avadhi-jnana in conceivable terms.
अवधिज्ञान का मध्यम विषय - (क्षेत्र)
THE AVERAGE SCOPE OF AVADHI-JNANA
१६ : अंगुलमावलियाणं भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं ॥
अर्थ - क्षेत्र के आधार पर एक अंगुल ( उत्सेध अथवा प्रमाणांगुल) के असंख्यातवें भाग
को जानने वाला अवधिज्ञानी काल के आधार पर भी आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता है । इसी प्रकार अंगुल के संख्यातवें भाग को जानने वाला आवलिका के संख्यातवें भाग को जानता है। किन्तु यदि वह अंगुल के बराबर क्षेत्र को जानता है तो आवलिका से कुछ कम जानता है और पूर्ण आवलिका को जानता है तो पृथक्त्व अंगुल ( अंगुल के दस भाग हों तो दूसरे से नवें भाग को पृथक्त्व अंगुल कहते हैं ) जानता है ।
16. An Avadhi-jnani (one who possesses such knowledge) with a capacity to know infinitesimal part of a standard angul in terms of area also has the capacity to know infinitesimal अवधि ज्ञान
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Avadhi-Jnana
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