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[ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लकाचार कथा ।
प्राथमिक दूसरे. अध्ययन में श्रामण्य में स्थिरता व धृति के लिए काम-राग अर्थात् मोह से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है। विरक्त आत्मा ही संयम का शुद्ध पालन कर सकता है। संयम की शुद्ध-पालना-विधि का नाम है आचार।
जो अनुष्ठान मोक्ष-प्राप्ति में सहायक हो तथा जो व्यवहारशास्त्र-मर्यादा के अनुकूल एवं
लोक-व्यवहार के विरुद्ध न हो वह आचार तथा शेष अनाचार माना जाता है। आचार धर्म 1 है, कर्तव्य है; अनाचार अधर्म है, अकर्तव्य है। वह निषिद्ध कर्म है। लिया स्थानांगसूत्र में आचार के पाँच भेद बताये गये हैं-(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार,
(३) चारित्राचार, (४) तपाचार, एवं (५) वीर्याचार। इसी में सम्पूर्ण मुनिधर्म समाहित है। । प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लकाचार कथा है। क्षुल्लक का अर्थ है, छोटा या अल्प। क्षुल्लकाचार से अभिप्राय है-श्रमण आचार का संक्षेप में वर्णन। इस अध्ययन के १५ श्लोकों में श्रमणचर्या के अनाचारों का वर्णन है। अनाचारों की संख्या भिन्न-भिन्न सूत्रों में भिन्न-भिन्न है। जैसे सूत्रकृतांग (१/९/१२) में धोवणं (वस्त्र धोना), रयणं (वस्त्र रंगना), पामिच्च (साधु के लिए उधार लिया हुआ), आदि भी श्रमण के लिए वर्जनीय हैं, वह भी अनाचार है। अतः आचार-अनाचार का विवेक करना श्रमण की स्वयं की प्रज्ञा पर निर्भर है। ___ इन अनाचारों में कुछ अनाचार ऐसे हैं जो अग्राह्य, अभोज्य और अकरणीय हैं। जिनका हिंसा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध जुड़ता है, जैसे-सचित्त भोजन, रात्रि भोजन आदि। कुछ अनाचार ऐसे हैं जिनका निरूपण संयम की विशुद्धि व ब्रह्मचर्य-रक्षा की दृष्टि से हुआ है। वे अनाचार परिस्थिति तथा विशेष में आचार भी बन सकते हैं, जैसे-वस्तिकर्म (विरेचन)। यह रुग्णावस्था में अनाचार नहीं है जबकि शरीर पुष्टि के लिए अनाचार है। अंजन-शोभाविभूषा के लिए यह अनाचार है किन्तु नेत्ररोग की अवस्था में अनाचार नहीं है। वृद्ध अवस्था में स्थविर को छत्र धारण व उपानत् (पद त्राण) आदि भी अनाचार नहीं है।
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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