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हम (श्रमण) वृत्ति (भिक्षा) इसी प्रकार ग्रहण करेंगे कि जिससे किसी जीव को कष्ट या हानि न पहुँचे। जैसे भँवरा फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है वैसे हम भी गृहस्थों से यथाकृत (सहज बना हुआ) आहार लेते हैं॥४॥
4. We shall collect alms in a manner that causes no harm or pain to any living being. As a bumble-bee sucks pollen just a little each from many flowers, so do we collect normally prepared food from householders. विशेषार्थ :
श्लोक ४. यथाकृत-गृहस्थ अपने उपयोग के लिए जो आहार व प्रासुक जल आदि तैयार करता है, वह 'यथाकृत' कहा जाता है। श्रमण ऐसा यथाकृत आहार ग्रहण करता है।
ELABORATION:
(4) Yathakrit-The food and disinfected water that a householder normally prepares for his own use is called yathakrit or normally prepared. A shraman takes such food only.
५ : महुगारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता तेण वुच्चंति साहुणो॥
त्ति बेमि। जो ज्ञानी पुरुष मधुकर-भ्रमर के समान अनिश्रित अर्थात् किसी एक पर आश्रित नहीं हैं तथा अनेक घरों से प्राप्त भिक्षा से संतुष्ट हैं। मन व इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं-वे अपने इन्हीं गुणों के कारण साधु कहलाते हैं।
ऐसा मैं कहता हूँ॥५॥
5. Those wise individuals who are not dependent on one particular person, are contented with the food collected from numerous houses, and have disciplined their mind and senses are called Sadhus (a sage, referring to a Jain ascetic here) for these virtues alone. . . . . . So I say. |१०
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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