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११. वनस्पति हिंसा-निषेध
४१ : वणस्सइं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिआ॥ ४२ : वणस्सइं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए।
तसे अ विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे॥ ४३ : तम्हा एअं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं।
वणस्सइसमारंभं जावज्जीवाइं वज्जए॥ जो संयम समाधि में रमण करने वाले मुनि हैं, वे मन, वचन और कायरूप तीन करण और तीन योग से कदापि वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते॥४१॥
वनस्पति की हिंसा करता हुआ, इसके साथ वनस्पतिकाय के आश्रित जो अन्य त्रस स्थावर, सूक्ष्म-बादर जीव हैं, उन सभी जीवों की हिंसा भी करता है।॥४२॥
इसलिये वनस्पतिकाय-समारम्भ को दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जाने। साधु | वनस्पतिकाय का समारम्भ यावज्जीवन के लिए त्याग दे॥४३॥
11. NEGATION OF HARMING PLANT BODIED BEINGS
41, 42, 43. A disciplined shraman never harms any plantbodied being through any of the three means--mind, speech or body or any of the three methods—do, induce or approve.
One who does so does not harm plant-bodied beings alone but also puts to harm a variety of visible and invisible mobile and immobile beings that are dependent on plant-bodied beings.
Understanding well that harming life is a terrible fault that leads to bad rebirth, an ascetic should refrain from harming plant-bodied beings throughout his life.
छठा अध्ययन : महाचार कथा Sixth Chapter : Mahachar Kaha
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