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उपलब्धि हो जाती है। वह हिंसा आदि पाँच आस्रवों का निरोध करके पिहितास्रव हो जाता है। ऐसा संयमी यतनाशील श्रमण कभी हिंसा से लिप्त नहीं होता। इसके लिए एक उदाहरण दिया गया है।
जलमज्झे जहा नावा सव्वओ निप्परिस्सवा। गच्छंति चिट्ठमाणा वा न जलं परिगिण्हइ ।। एवं जीवाउले लोगे साहू संवरियासवो।
गच्छंतो चिट्ठमाणो वा पावं नो परिगेण्हइ॥ जैसे छिद्ररहित नाव अथाह जलराशि पर चलती या ठहरी हुई- हो, परन्तु उसमें जल IAS प्रवेश नहीं कर पाता तो वह निर्विघ्न अपनी मंजिल पर पहुँच जाती है। उसी प्रकार आस्रव
का निरोध करने वाला पिहितास्रव श्रमण जीवाकुल लोक में चलता, ठहरता सभी क्रियाएँ करता हुआ पाप का भागी नहीं बनता। (आधार-जिनदास चूर्णि) इसी भाव को चित्र संख्या ७ में दिखाया गया है।
सर्वभूतात्मभूत-विशेषण को स्पष्ट करते हुए जिनदास चूर्णि में कहा है जिसके मन में इस प्रकार की संवेदना हो कि जैसे मेरे पाँव में तीक्ष्ण काँटा चुभने से मुझे वेदना होती है, वैसे सभी को होती है, वह सब जीवों को अपने समान समझने लगता है, वह सर्वभूतात्मभूत है
कटेण कंटएण व पादे विद्धस्स वेदणा तस्स।
जा होइ अणेव्वाणी णायव्वा सव्व जीवाणं॥ __ -पृ. १६० ____ पिहितासव को पापकर्म का बंध नहीं होता। इसी भाव का समर्थन करते हुए गीता में / कहा है
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ -गीता ५/७ जो योगयुक्त विशुद्ध आत्मा है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है तथा सर्वभूत-प्राणियों के प्रति आत्म-तुल्य भावना रखता है, वह संसार में कर्म करता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता।
ELABORATION:
(9) Savvabhuyappabhuyassa—One who feels the pleasures and miseries of others as his own attains the state of right
श्री दशवकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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