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मैं आत्महित के हेतु ये पाँच महाव्रत और रात्रि - भोजन विरति नामक छठा व्रत अंगीकार कर विहार करता हूँ ॥ १७ ॥
17. For the benefit of the self I accept these five great vows along with the sixth vow of abstaining from eating during night, and commence my itinerant way.
पृथ्वीकाय समारंभ - विरमण
१८. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा - से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कायं, ससरक्खं वा वत्थं, हत्थेण वा पाएण वा कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा, न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घट्टिज्जा न भिंदिज्जा अन्नं न आलिहाविज्जा न विलिहाविज्जा न घट्टाविज्जा न भिंदाविज्जा अन्नं आलिहंतं वा विलिहंतं वा घट्टतं वा भिदंतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि ।
तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
ऐसे संयत, विरत, पापकर्म-प्रतिहत तथा पापकर्म-प्रत्याख्यात भिक्षु अथवा भिक्षुणी दिन या रात में, एकान्त या परिषद में, सोते हुए या जागते हुए पृथ्वी, भित्ति (नदी-तट की मिट्टी), शिला, ढेले, सचित्त धूल भरी काया, धूल भरे वस्त्रादि पर, हाथ, पाँव, काठ, खपच्ची, अंगुली, सलाई, सलाई के गुच्छे आदि से कुछ भी लिखे नहीं, छुए नहीं, छेदे नहीं; अन्यों से अल्पाधिक लिखावे नहीं, छुआवे नहीं, छिदवावे नहीं; अन्यों द्वारा अल्पाधिक लिखे गये, छुए गये, छेदे गये का अनुमोदन नहीं करे। यह मैं, समस्त जीवन पर्यन्त तीन करण और तीन योग से पालन करूँगा । अर्थात् मैं जीवन पर्यन्त यह सब मन, वचन, काया से न करूँगा, न कराऊँगा, न करने वाले का अनुमोदन करूँगा ।
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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