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________________ - आध्यात्मिक स्वप्न सदैव ही आत्मोन्नति को द्योतित करते हैं । स्वप्न में त्यागी, तपस्वी, संत, मुनियों के दर्शन-वन्दन, स्वयं को धर्मस्थान में बैठा देखना, संतों के प्रवचन सुनना, सामायिक आदि करते हुए देखनायह सब आध्यात्मिक स्वप्न हैं तथा स्वप्नद्रष्टा की आध्यात्मिक रुचि, प्रगति और आत्मा की उन्नति के स्पष्ट संकेत हैं। इस तरह स्वप्नों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया गया है। सभी की अपनी-अपनी विशेषता और महत्त्व है। किन्तु तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली पुरुषों के गर्भ में आते समय उनकी माताएँ जो महास्वप्न देखती हैं। उनकी जैन संसार में बहुत चर्चा होती है तथा उनका महत्त्व भी अत्यधिक माना गया है। चौदह महास्वप्न माता के गर्भ में जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती का जीव अवतरित होता है तब माता १४ महास्वप्न देखती है। ये स्वप्न निम्न हैं (१) चार दाँत वाला पर्वताकार श्वेत वर्ण का हाथी - इसका फल है - वह जीव चार प्रकार के धर्म ( श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका ) का प्रतिपादन करने वाला होना । ( २ ) वृषभ - संसार में बोधि बीज का वपन करने वाला । (३) सिंह - काम आदि विकारों को नष्ट करके धर्म का प्रसार करेगा । सिंह शौर्य, निर्भीकता आदि का प्रतीक है, अतः वह स्वयं अभय रहना तथा संसार के सभी प्राणियों को अभय देने वाला है। (४) लक्ष्मी - वर्षी दान देकर संसार त्याग करेगा और कैवल्य लक्ष्मी प्राप्त करने वाला । (५) माला - त्रिलोक पूज्य होना । (६) चन्द्र - चन्द्रमा की शीतल ज्योत्स्ना के समान सभी प्राणियों को सुखदायी होना । (७) सूर्य - अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करके शुद्ध धर्म का उद्योत करने वाला। (८) ध्वजा - धर्म की ध्वजा को विश्व क्षितिज पर फहराने वाला । ( ९ ) कलश - धर्मरूपी प्रासाद पर वह स्वर्ण कलश के समान शोभित । (१०) पद्म-सरोवर - देव-निर्मित स्वर्ण-कमल पर विराजित होने वाला । (११) समुद्र - सागर के समान गंभीर तथा केवल-ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त गुण रूप मणि - रत्नों का धारक होना । (१२) विमान - वैमानिक देवों द्वारा पूज्य । (१३) रत्न - राशि - जिस प्रकार रत्न - राशि अप्रतिहत प्रभा से प्रभास्वर होती है उसी प्रकार उसका ज्ञान-दर्शन अप्रतिहत होगा, ज्ञान-दर्शन की ज्योति से उद्योतित - प्रकाशित । (१४) निर्धूम अग्नि- विशुद्ध एवं निर्मल धर्म का प्रतिपादन करने वाला होना । ४७२ Jain Education International For Private Personal Use Only अन्तकृद्दशा महिमा www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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