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________________ हस्तिनापुर नगर में तीर्थंकर विमलनाथ के प्रशिष्य ( शिष्यानुशिष्य ) धर्मघोष अनगार पधारे। उनका धर्मोपदेश सुनकर महाबलकुमार के हृदय में वैराग्य जाग्रत हुआ। माता-पिता के समक्ष अपनी इच्छा प्रगट की। माता-पिता ने बहुत समझाया लेकिन जब ये संसाराभिमुख न हुए तो उन्होंने कहा "हम एक दिन के लिए तुम्हें राजा के रूप में देखना चाहते हैं । " इस पर महाबलकुमार मौन हो गये। धूमधाम से उनका राज्याभिषेक हुआ। राज-सिंहासन पर बैठते ही दीक्षा की इच्छा प्रगट की ! आखिर इन्होंने विधिपूर्वक धर्मघोष अनगार के समक्ष श्रामणी-दीक्षा ग्रहण कर ली । सामायिक आदि १४ पूर्वी का अध्ययन किया । उपवास, बेला, तेला आदि अनेक तप करते हुए बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करते रहे । अन्त में संलेखना - संथारापूर्वक देहत्याग किया और ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम की आयु वाले देव बने । देवलोक का आयुष्य पूर्ण करके भगवान महावीर के शासनकाल में, सुदर्शन श्रेष्ठी के रूप में वाणिज्यग्राम में जन्म लिया । सुदर्शन श्रेष्ठी श्रमणोपासक और जीवाजीव का ज्ञाता था । भगवान महावीर के पादमूल में इसने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की, चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया और अन्त में मुक्त हो गये। ११. आर्य स्कन्दक (खंधक) अन्तकृद्दशासूत्र में स्कन्दक मुनि का उल्लेख तीन बार आया है - ( 9 ) प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन के सूत्र ९ में जब गौतमकुमार १२ भिक्षु प्रतिमाओं की आराधना करते हैं । ( २ ) छठे वर्ग के प्रथम सूत्र (सूत्र १ ) में जब मंकाई (गाथापति) मुनि गुणरत्नसंवत्सर तप करते हैं । ( ३ ) वर्ग ८ के सूत्र १४ में जब साध्वी महासेनकृष्णा धर्मचिन्तन और धर्मजागरणा करती हुई संलेखना - संथारा का निश्चय करती हैं। ( भगवतीसूत्र ११ ) इन तीनों सन्दर्भों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि आर्य स्कन्दक ने १२ भिक्षु प्रतिमाओं, गुणरत्नसंवत्सर तप और संलेखना- संथारा की विधिवत् आराधना की थी । इसी कारण अन्तकृद्दशासूत्र के तीन स्थलों पर उनकी उपमा दी गई है। स्कन्दक जी का जीवनवृत्त इस प्रकार है राजगृह नगर के पश्चिमोत्तर भू-भाग में कृतंगला नाम की नगरी थी। उसी के सन्निकट श्रावस्ती नगर था। वहाँ कात्यायन परिव्राजक का शिष्य स्कन्दक परिव्राजक निवास करता था। वह समस्त वेद-वेदांगों, इतिहास, नीति व अन्य दर्शनों में पारंगत था । श्रावस्ती में ही पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ वेसालीय श्रावक निवास करता था। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के रहस्य का ज्ञाता था । अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private Personal Use Only ४४५ www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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