SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा निदान कोई निर्ग्रन्थी (श्रमणी), जो तप संयम, ब्रह्मचर्य और ध्यान-साधना सर्वज्ञ प्रणीत धर्म के अनुसार करती है। वह किसी ऐसी स्त्री को देखती है जो बहुमूल्य रत्नाभूषणों से सुसज्जित है. मनुष्य-सम्बन्धी उत्तम भोग सामग्री उसे उपलब्ध है, अत्यन्त सुन्दरी है, अपने पति की एक मात्र प्राणप्रिया है। उसे देखकर वह श्रमणी निदान करती है-'यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम, ब्रह्मचर्य-पालन का फल हो तो मैं भी आगामी जन्म में इस स्त्री के समान मनुष्य-संबंधी उत्तम काम-भीगों को भोगूं।" __ वह श्रमणी यदि इस निदान की आलोचना किये बिना ही देह-त्याग करती है तो (आरित तपस्या के प्रभाव से) देवगति में उत्पन्न होती है। वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके उच्च कुल में जन्म लेती है जहाँ उसे काम-भोगों के उत्तम साधन उपलब्ध होते हैं। उन सुखों को भोगती है। यद्यपि श्रमण आदि उसे धर्म सुनाते हैं, लेकिन वह इच्छापूर्वक नहीं सुनती। वह दुर्लभबोधि होती है। काम-भोगों में लिप्त रहकर, वह महाआरम्भ, महापरिग्रह वाली बनकर आयु पूर्ण करके नग्क को जाती है और वहाँ की घोर पीड़ा को सुदीर्घकाल तक भोगती है। यह उस निदान शल्य का विपाक परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनती भी नहीं। तीसरा निदान कोई निर्ग्रन्थ (श्रमण), जो तप, संयम, ब्रह्मचर्य-पालन, ध्यान-साधना में सर्वज्ञ प्रणीत धर्म श्रमणधर्म की अनुपालना करता है। वह किसी अत्यन्त सुन्दरी उच्च कुलीन स्त्री को देखता है कि वह पति की प्राणप्रिया है तथा मनुष्य-संबंधी उत्तमोत्तम भोगों को भोग रही है। तब वह निर्ग्रन्थ श्रमण मन में सोचता है-“पुरुष का जन्म तो दुःखों से भरा है। युद्ध में उसे अपने वक्ष-स्थल पर शत्रुओं के वाण, भाले, तलवार आदि के प्रहार झेलने पड़ते हैं और भी अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। लेकिन स्त्री का जन्म सुखमय है, वह अपने भवन-महल में रहकर, दास-दासियों पर हुकुम चलाती है और स्वयं सुखमय जीवन व्यतीत करती है। उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।" वह श्रमण निदान (दृढ़ संकल्प) करता है-'यदि मेरे इस तपश्चरण का फल हो तो मैं आगामी जन्म में उच्च कुल वाली स्त्री बनूँ और मनुष्य-संबंधी उत्तमोत्तम सुख भोगूं।" ___ यदि वह श्रमण इस निदान की आलोचना, प्रतिक्रमण किये बिना ही कालधर्म प्राप्त करता है तो (आचरित तपस्या के प्रभाव से) देवगति प्राप्त करता है और वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके मनुष्यलोक में उच्च कुलीन स्त्री रूप में जन्म ग्रहण करके उत्तमोत्तम भोगों को भोगता है। उसे धर्माचार्य, श्रमण आदि केवली प्ररूपित धर्म सुनाते हैं किन्तु वह रुचिपूर्वक नहीं सुनती, सुनी-अनसुनी कर देती है। .४०४ . अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy