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________________ वासुदेव अपने समय के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं। उनके विरोधी और दुष्कृत करने वाले सदा उनसे भयभीत रहते हैं। कभी-कभी तो इनकी उपथिनि मात्र से ऐसे व्यक्तियों के प्राण भी निकल जाते हैं जैसे कि मुनि गजमुकुमाल को प्राणान्तक उपसर्ग देने वाले सामिल ब्राह्मण के प्राण श्रीकृष्ण को देखते ही निकल गये थे। वासुदेव निग्रह और अनुग्रह (bans and boons) में भी कुशल होते हैं। सज्जनों का त्राण करना और पापियों का विनाश करना उनका सहज स्वभाव होता है। उनके वचन अमोघ होते हैं। अपनी आज्ञा का पालन ही चाहते हैं, उल्लंघन इन्हें वर्दाश्त नहीं होता। विभिन्न घटना प्रसंगों में श्रीकृष्ण वासुदेव की ये विशेषताएँ स्पष्ट पग्लिक्षित होती हैं। यही वासुदेव की कार्य-शैली है। तीर्थंकर और वासुदेव की ये भिन्नताएँ ही उनके कार्य-क्षेत्र की स्पष्ट विभाजन रेखा खींचती हैं। युग-प्रवर्तक दोनों ही होते हैं-तीर्थंकर भी और वासुदेव भी। अपने विशिष्ट गुणों से ये दोनों ही लोकमानस को प्रभावित करते हैं और युगों तक हजारों-लाखों वर्षों तक इनका प्रभाव बना रहता है; जन-जन के स्मृति कोष में वे सुरक्षित रहते हैं। तीर्थंकर अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण ऐस ही महान् युग-प्रवर्तक थे। भगवान महावीर अन्तकृद्दशांगसूत्र के छठवें से आठवें-तीन वर्गों में नीर्थंकर महावीर का उल्लेख प्राप्त होता है। ३९ साधक-साधिकाएँ इन्हीं के शासनकाल में अन्नकृत् केवली वनकर मक्ति प्राप्त करन हैं। __ यह भी सत्य है कि वर्तमान अंग साहित्य भगवान महावीर की शना है। अतः प्रस्तुत आठवाँ अंग भी तीर्थंकर महावीर की देशना है। जन्मकालीन परिस्थितियाँ जिस समय भगवान महावीर का जन्म हुआ इस समय भारत में अराजकता छाई हुई थी। नैतिक और धार्मिक दृष्टि से अन्धकार व्याप्त था। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दशा पतनोन्मुखी थी। भगवान अरिष्टनेमि के मुक्ति-गमन के उपरान्त लम्बा काल व्यतीत हो चुका था। मध्य पशिया. एशिया माइनर, उत्तरी ध्रुव प्रदेश और अफ्रीका (उस समय तक यूगेप. अफ्रीका महाद्वीप एशिया में स्थल मार्ग से जुड़े हुए थे। स्वेज नहर बनन के वाद अफ्रीका महाद्वीप एशिया से अलग हुआ है) आदि दूरस्थ भू-प्रदेशों से अनेक जातियाँ भारत में प्रवेश कर चुकी थीं। सबके अपने-अपने गति-रिवाज. टाग्म-टवू. धार्मिक सामाजिक तथा अन्य विचारधागएँ अलग-अलग थीं। ___तापस आदि पंचाग्नि नप में धर्म मानते थे तो याज्ञिक यज्ञ करने में। नरमंध. अश्वमेध आदि के रूप में यज्ञ हिंसक हो चुके थे। जाति-पाँति का वोलवाला था। नारी की स्थिति पशुओं से भी बदतर थी। पशुओं के समान स्त्री-पुरुषों की दास-दासियों के रूप में सरेआम नीलामी होती थी। ज्ञान के नाम पर अज्ञान का प्रचार हो रहा था। सभी दृष्टियों से भाग्न पतन की ओर अग्रसर हो रहा था। अन्तकृदशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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