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________________ तीर्थंकर अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण ये दोनों ही महान् युग-प्रवर्तक और समकालीन थे। दोनों ही पारिवारिक दृष्टि से भी जुड़े हुए थे। अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई (cousin) थे। इन दोनों का ही भारत की वैदिक और श्रमण परम्परा में यशोगान हुआ है, पूज्य भाव से स्मरण किया गया है। हाँ, इतना अन्तर अवश्य है कि वैदिक परम्परा में श्रीकृष्ण का विस्तार रूप से वर्णन है, जबकि तीर्थंकर अरिष्टनेमि का अपेक्षाकृत बहुत कम है. फिर भी जहाँ-जहाँ उल्लेख हुआ वहाँ उनके प्रति पूज्य भाव ही प्रदर्शित हुआ है। तीर्थंकर और वासुदेव तीर्थंकर अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में विशेष जानने से पहले तीर्थंकर' और 'वासुदेव' इन दो शब्दों का रहस्यार्थ जानना आवश्यक है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में तीर्थंकर' शब्द का अभाव है, यह शब्द कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवंद आदि में अरिष्टनेमि को तार्य अरिष्टनेमि अवश्य कहा गया है। यह 'तार्थ्य' शब्द शाब्दिक दृष्टि से तीर्थंकर' शब्द के समीप है, क्योंकि शुक्ल यजुर्वेद के अध्याय ९, मंत्र २५ में अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) को अध्यात्म-यज्ञ को प्रगट करने वाले, संसार के भव्य जीवों को सब प्रकार से यथार्थ उपदेश देने वाले और जिनके उपदेश से आत्मा बलवान होती है-ऐसा बताकर इन सर्वज्ञ नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के लिए आहुति समर्पित की गई है। इसी प्रकार अन्यत्र भी नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के पूर्व (विशेषण रूप में) वैदिक परम्परा के अन्य ग्रन्थों में जहाँ-जहाँ भी तार्क्ष्य' शब्द प्रयोग हुआ वहाँ-वहाँ इस शब्द से पूज्य' अर्थ ही ध्वनित होता है। फिर भी इतना तो सत्य है कि वैदिक ग्रन्थों में तीर्थंकर' शब्द का प्रयोग नहीं आता है। 'वासुदेव' शब्द का प्रयोग महाभारत तथा अन्य पुगण साहित्य तथा उत्तरकालीन वैदिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वह श्रीकृष्ण के लिए ही है यानी वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण वासुदेव-इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार वैदिक परम्परा के अनुसार एक ही वासुदेव श्रीकृष्ण हुए हैं। ___ यद्यपि डॉ. भाण्डारकर ने भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक और सात्वत अथवा भागवत धर्म के उपदेशक रूप में दो वासुदेवों की पृथक्-पृथक् परिकल्पना की; किन्तु लोकमान्य तिलक. हेमचन्द्र गय चौधरी, कीथ आदि विद्वानों ने इस मत को अस्वीकार करके निश्चित किया कि एक ही वासुदेव हुए हैं, जो श्रीकृष्ण के रूप में विख्यात हैं। लेकिन जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर और वासुदेव एक पदवी है जो पूर्वजन्म में तप द्वाग उपार्जिन की जाती है। जिसे कोई भी जीव उपलब्ध कर सकता है। अन्तर इतना है कि वासुदेव कृतनिदान (संसार और सांसारिक सुखों की इच्छापूर्वक संकल्प करने वाले ) होते हैं; जबकि तीर्थंकर कोई निदान नहीं करते। जैन परम्परा के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में ९ वासुदेव (वासुदेव पदवी धारी-दक्षिण भरतार्द्ध के स्वामी-अर्द्ध चक्रवर्ती) हुए हैं. जिसमें श्रीकृष्ण अन्तिम अथवा नौवें वासुदेव हैं। अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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